पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२५६

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२४६ राजनीतिक कहानिया पर चढ़ा लिया। नायक ने मेरे हाथ से पुस्तक ले ली। क्षण भर सन्नाटा रहा। नायक ने एकाएक उसका नाम लिया और क्षण भर में ६ नली रिवाल्वर मेज पर रख दिया। वह छह अक्षरों का शब्द उस रिवाल्वर की छहों गोलियों की तरह मस्तिष्क मे घुस गया। पर मैं कम्पित न हुअा । प्रश्न करने और कारण पूछने का निषेध था। नियमपूर्वक मैंने रिवाल्वर उठाकर छाती पर रखा और उस स्थान से हटा। तत्क्षण मैंने यात्रा की । वह स्टेशन पर हाजिर था। अपने पत्र और मेरे प्रेम पर इतना भरोसा उसे था। देखते ही लिपट गया। घर गए, चार दिन रहे। वह क्या कहता है, क्या करता है, मै देख-सुन नहीं सकता था ! शरीर सुन्न हो गया था, श्रात्मा हढ़ थी, हृदय धड़क रहा था; पर विचार स्थिर थे। चौथे दिन प्रातःकाल जलपान करके हम स्टेशन की ओर चले। तांगा नही लिया, जगल में घूमते जाने का विचार था। काव्यों की बढ़-चढ़कर आलोचना होती चलती थी। उस मस्ती में वह मेरे मन की उद्विग्नता भी न देख सका। धूप और खिली, पसीने वह चले । मैंने कहा-चलो, कहीं छांह में बैठे। धनी कुज सामने थी। वहीं गए। बैठते ही जेब से दो अमरूद निकालकर उसने कहा-सिर्फ दो ही पके थे, घर के बगीचे के है। यहीं बैठकर खाने के लिए लाया था; एक तुम्हारा, एक मेरा। मैंने चुपचाप नमरूद लिया और खाया। एकाएक मैं उठ खड़ा हुआ। वह आधा अमरूद खा चुका था। उसका ध्यान उसीके स्वाद में था। मैंने धीरे से रिवाल्वर निकाला, घोड़ा चढाया और कम्पित स्वर में उसका नाम लेकर कहा---अमरूद फेंक दो और भगवान् का नाम लो---मै तुम्हे गोली मारता हूं। उसे विश्वास न हुआ । उसने कहा-वहुत ठीक, पर इसे खा तो लेने दो। मेरे धैर्य छूट रहा था। मैने दवे कण्ठ से कहा-अच्छा खा लो । खाकर वह खडा हो गया ; सीधा तनकर। फिर उसने कहा-अब मारो गोली । मैंने कहा-हंसी मत समझो, मैं तुम्हें गोली ही मारता हूं, तुम भगवान् का नाम लो। उसने हंसी में ही भगवान् का नाम लिया और फिर वह नकली गम्भीरता