पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२५७

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खूनी २४७ से खड़ा हो गया। मैंने एक हाथ से अपनी छाती दबाकर कहा-ईश्वर की सौगन्ध ! हंसी मत समझो, मैं तुम्हें गोली मारता हूं। भेरी अांखों में वही कच्चे दूध के समान स्वच्छ आंखें मिलाकर उसने कहा- मारो। क्षणभर भी विलम्ब करने से मैं कर्तब्धच्युत हो जाता। पल-मन में साहस डूब रहा था। दनादन दो शब्द गूंज उठे । वह कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा। दोनो गोली छाती को पार कर गई। मैं भागा नहीं । भय से इधर-उपर मैंने देखा भी नहीं, रोया भी नहीं। मैंने उसे गोद में उठाया। मुंह की धूल पोंछी । रक्त साफ किया। आंखों में इतनी ही देर में कुछ का कुछ हो गया था। देर तक उसे गोद में लिए वैग रहा, जैसे मां सोते बच्चे को जागने के भय से निश्चल लिए बैठी रहती है। फिर मैं उठा । ईंधन चुना, चिता बनाई और जलाई-अन्त तक वहीं बैठा बारहों प्रधान हाजिर थे। उसी स्थान पर जाकर मैं खड़ा हुआ। नायक ने नौरव हाथ बढ़ाकर रिवाल्वर मांगा। रिवाल्वर दे दिया। कार्य सिद्धि का संकेत सम्पूर्ण हुआ। नायक ने खड़े होकर वैसे ही गम्भीर स्वर में कहा-तेरहवें प्रधान की कुर्सी हम तुम्हें देते है। मैंने कहा तेरहवें प्रधान की हैसियत से मैं पूछता हूं कि उसका अपराध मुझे बताया जाए। नायक ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया-वह हमारे हत्या-सम्बन्धी षड्यन्त्रों का विरोधी था। हमें उसपर सरकारी मुखबिर होने का सन्देह था। मैं कुछ कहने योग्य न रहा । नायक ने वैसी ही गम्भीरता से कहा-नवीन प्रधान की हैसियत से तुम यथेच्छ एक पुरस्कार मांग सकते हो। अब मैं रो उठा। मैंने कहा-~-मुझे मेरे बचन फेर दो। मुझे मेरी प्रतिज्ञापों से मुक्त कर दो, मैं उसीके समुदाय का हूं! तुम लोगों में नंगी छाती पर तलवार के धाव खाने की मर्दानगी न हो तो तुम अपने को देशभक्त कहने से इन्कार कर दो। तुम्हारी इन कायर हत्याओं को मैं घृणा करता है । मैं हत्यारों का साथी. सलाही और मित्र नहीं रह सकता ! तुम तेरहवीं कुर्सी को जला दो। नायक को क्रोध न आया। बारहों प्रधान पत्थर की मूर्ति की तरह बैठे रहे । नायक ने उसी गम्भीर स्वर में कहा- तुम्हारे इन शब्दो की सपा मौत