पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६१

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मुहब्बत २५१ तो जरूरी था। मगर 'वाह तो मेरे फूटे मुंह से एक बार भी नहीं निकलती थी। अव जो राजा साहब ने मेरी आँखों को एक चुनौती दी तो मैं चश्मे से धर-पूर- कर अहमक की तरह इधर-उधर देखने लगा। राजा साहब मेरी बेवकूफी पर रहम खाकर मुस्कराकर रह गए। लेकिन कुछ क्षण वाद हो राजा साहब ने हुक्म दिया-~-मुहब्बत खड़ी हो । और तब मैंने मुहब्बत को देखा, कुछ समझा भी। कम से कम राजा साहब का दिल तो समझ ही गया । लम्वा, छरहरा, तपातुला बदन, चमकने सोने का रंग, बड़ी-बड़ी मदभरी प्रांखें, चांदी का सा साफ माथा, भौरे-सी गृजनभरी लटें, दुज के बाद के समान पतली भौंहैं और विल्कुल १६ अंगुल की कमर । पैर की ठोकर दी तो धुंघरू बजे छम, फिर ठोकर दी, फिर दी, ठोकरों की झड़ी लगाई, चूंधरू बजे, छम-छम, छमाछम, छमाछम । छम छमाछम । और फिर देखी वह सोलह अंगुल वाली कमर, बल खाती, इठलाती नागिन-सी लहराती और उसपर तैरता वह अछूता यौवन । मदभरी आंखें, तिरछी भौहें। यहीं पर बस नहीं। कोयल की कुहू । पंचम की तान । मसनद पर झुककर मैंने राज साहब के कान के पास मुंह ले जाकर कहा- देखा महाराज, अव देखा। राजा साहब ने भौंहें तरेरकर कहा- अब क्या देखा? खाक ! अब तो धुनिए-जुलाहे सब देख चुके । सब की नजर पड़ चुकी, जूठी हो चुकी। उन्होंने फिर अपना चांदी का पानदान खोल ४ बीड़े पान के हलक में ठूस लिए और मेरी तरफ ले मुंह फेर लिया। क्या करूं ? देहाती दहकानी ठहरा । राजा साहब को खुश करने का कोई ढग ही नहीं नजर आया। मन मारकर मुहब्बत का नृत्य देखने लगा। दोनों गालों में पान ढूंसे, उसे पेश करते, हंसते हुए एक ने कहा-पाजल गानो। बनारस के बवुना साहब ने एक मुट्टी इलाचियां पेश करते हुए कहा--- जी नहीं, कोई ठुमरी। मुंशीजी तड़पकर बोले नहीं सरकार, कोई पक्की चीज होने दीजिए। राजा साहब ने मेरी ओर मुंह करके कहा-बार फर्माइश कीजिए। मैने झंपते हुए कहा--कोई ऐसी चीज़ सुनाइए जिसमें मुहब्बत का दरिया वह जाए। राजा साहब खिलखिलाकर हंस पड़े। हंसी का फबारा फूट गया। भला