पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६२

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२५२ रजवाड़ो की कहानिया - राजा साहब हंसें और महफिल चुप रह जाए? बा साहबा ने भी फिकरा जला--- तो हुजूर, इस मुहब्बत के दरिया से प्यास किसकी बुझेगी ? मैने कहा--प्यास पंछियों की बुझेगी, मगर कोई मर्द-बच्चा हुबकी लगा बैठे तो अजव नहीं। राजा साहब दुहत्तड़ जांघों पर मारकर उछल पड़े खूब कहा, खूब कहा मुहब्बत मेंपकर झुक गई। कुछ देर में कहकहा का तूफान थमा और मुहब्बत ने एक गजल गाई। जान बची लाखों पाए। राजा साहब खुश हो गए। मैंने समझा, ठीक मुसा- हिवी हुई। दूसरे दिन रात को राजा साहब ने बुलावा भेजा । जाकर देखा दीवानखाने मे राजा साहब और मुहब्बत दोनों ही है। पास मे राजा साहब के मुंह लगे पेश- कार राजा साहब का बड़ा सा चांदी का पानदान गोद मे लिए बैठे हैं। मुहब्बत ने आधी ताजीम दी और सलाम किया। मैंने कहा--मुबारकबादी देता हूं । आप एक ही कमाल हैं । 'जी हां, कल आप नहीं बना सके, सो अब बनाइए'-मुहब्बत ने टेढी नजरो से देखकर कहा। 'नही, नहीं, ऐसा नहीं है, आपका फन ही ऐसा है कि जो देखेगा सिर धुनने लगेगा।' 'पाख्या तो इसीसे हुजूर कल इस कदर सिर धुन रहे थे!' मुहब्बत ने खास तीखा तीर चलाया था। मैंने भैप मिटाने को कहा—जी मैं दहकाती न सही-सारी महफिल ही सिर धुन रही थी। 'शुक्रिया, तो इस बात के हुजूर एक मातवर गवाह हैं।' राजा साहब ने नकली गम्भीरता से कहा-वे सब सिर धुनने वाले सही- सलामत तो हैं न ? मुहब्बत ने कहा-एक वे मुन्शीजी तो कल ही मर रहे थे। राजा साहब पचास को पार कर गए थे। दुबले-पतले, कोई ढाई माशे के लखनवी आदमी थे। रंग पक्का, खोपड़ी गजी, आंखों में मोटे शीशे का चश्मा, खाने-पीने मौर कपरे तत्तों से प्रसावधान मगर पनके पियवकत तुम के पो