पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६३

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मुहब्बत और सनकी । दो रानियां जिन्दा हाजिर थीं। एक सही मानों में धर्मपत्नी। जो सिर्फ महलों में धरी रहती थीं। दूसरी तीखी समालोचक, विदुषी और डिक्टेटर । मेरे राजा साहब से अनेक नाते थे। मैं उनका चिकित्सक तो था ही, मित्र भी था ! वे मेरा विश्वास करते थे, दिल खोलकर बात करते थे। अनेक वार मैने उनके प्राणों की रक्षा की थी, प्रतिष्ठा की भी। बहुत वार राजा साहब के प्रांसू मैंने देखे थे। मेरे सम्मुख राजा साहब वास्तव में एक निरीह व्यक्ति थे। राजा नहीं। साल में २-३ दौरे मेरे रियासत में लग ही जाते थे। परन्तु इस बार व्यस्त रहने से कुछ देर में जाना हुआ। जाकर देखा, सर्दी से बचने के लिए राजा साहब रजाई में लिपटे हुए अंगीठी ताप रहे हैं -पास बैठी है मुहब्बत । वह मुहब्बत नहीं जो पिछले साल देखी थी-हुजूर कहकर पुकारने वाली, झुककर सलाम करने वाली । यह तो दानी की गुण-गरिमा से पूर्ण स्त्री थी। उसकी आंखों में गर्व और बातचीत में रानीपन की साफ झलक थी। मैं सुन चुका था कि महाराज के आदेश से कुंवर साहबान उसकी ताजीम करते हैं, राजवधू उसे अभ्युत्थान देती हैं । सुनकर ही मेरा मन विद्रोह से सुलग उठा। और जब मेरे वहां पहुंचने पर उसने मुझे ताजीम नहीं दी, उल्टे मुझी से ताजीम चाही तो मैंने उस औरत की तरफ से एकबारगी ही मुंह फेर लिया। मैं उसकी भोर विना ही देखे राजा साहब से बाते करने लगा। राजा साहब ने देखा। देखकर मुस्कराए। मुस्कराकर कहा--पहचाना नहीं। मैंने आश्चर्य का नाट्य करते हुए कहा नहीं, महाराज ! 'मुहब्बत है -~-सरल अांखों से उसकी ओर ताकते हुए उन्होंने कहा । मैने कहा-~-प्रोफ, बिल्कुल ही सूखकर खुश्क हो गई ! राजा साहब ने प्रांखें मेरी ओर उठाकर कहा--कौन ? 'मुहब्बत महाराज !' मैंने थोड़े दर्द से कहा। महाराज एकदम खिलखिला- कर हस पड़े, वोले-इतनी मोटी तो हो रही है। आप कहते हैं सूख गई ? मैंने अांखें नीची करके रूखे स्वर में कहा-महाराज शायद खातून का जिक्र कर रहे हैं ? परन्तु मैंने महाराज से मुहब्बत की बाबत अर्ज की ? 'खूब हैं आप !' राजा साहब हंसकर वोले-मुहब्बत को मुहब्बत से जुदा करते