पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६४

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२५४ रजवाड़ो की कहानिया हैं श्राप । खैर, अव यह देखिए कि इनका मिजाज कैसा है ? इस बार तो मैंने इन्हीं के लिए आपको कष्ट दिया है। अपनी अप्रसन्नता को मैंने छिपाया नहीं। थोड़ा रूखे स्वर में मैंने कहा- महाराज ने इतनी सी बात के लिए नाहक तकलीफ की। रियासत के डाक्टर और नर्स क्या इतना भी नहीं कर सकते ? मेरा जवाब राजा साहब को पसन्द नहीं आया। उनका चेहरा उदास हो गया, परन्तु प्रथम इसके वे कुछ कहे में उठ खड़ा हुभा । मैंने मुहब्बत से कहा- दूसरे कमरे में चलो, देखू क्या बात है । स्पष्ट था कि वह मेरी भावना को ताड़ गई। उसकी त्योरियों में बल पड गए। जब मैं उसकी परीक्षा कर चुका और चलने लगा तो उसने कहा- कड़वी दवा मत दीजिए । नहीं खा सकूगी। मैंने उलटकर देखा । मेरी आंखे जलने लगी। मैंने कहा-क्यों ? 'मैं कड़वी दवा नहीं खा सकूँगी।' मैंने जवाब नहीं दिया । गहरी विरक्ति और कुत्सा से मेरा मन भर गया । 'आप' स्थानीय डाक्टर को जरा बुला लीजिए, मैं उन्हें समझा दूगा । इनकी चिकित्सा-व्यवस्था हो जाएगी।' और इस प्रकार डाक्टर साहब का चरण अन्तःपुर में पड़ा । नवयुवक थे । गौर वर्ण था, गोल मुह और गोल ही आंखें। हर समय हंसकर बाते करना उनका स्वभाव था । जव मेरे ही सामने उन्होने उस औरत को 'हुजूर' कहकर पुकारा तो उस औरत ने साभिप्राय मेरी ओर ताका । उस ताकने का अभिप्राय यह था देखा, इस तरह बोलना चाहिए। रियासती व्यवस्था बड़ी विचित्र होती है। अन्तःपुर के उस द्वार पर रात- दिन संगीन का पहरा रहता था । कोई पक्षी भी वहां पर नहीं मार सकता था। परन्तु डाक्टर के लिए रोक न थी। डाक्टर को देखते ही संतरी वन्दुक नीचे करके द्वार छोड़ हटकर खड़ा हो जाता था और डाक्टर एक मुस्कान उसपर फेंककर ऊपर चढ़ जाते। कक्ष में अकेली मुहब्बत और राजा साहब । तबीयत दोनों की खराब ।