पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६५

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मुहब्बत २५५ सर्दी के दिन थे। राजा साहब सुबह ही से धूप तापने को तिमंजिली छत पर श्रारामकुर्सी पर जा पड़ते । वहीं से वे पान कचरते रहते । तेल की मालिश होती रहती। कभी-कभी सो भी जाते । मुहब्बत बहुत कम ऊपर चढ़ती थी। टांगों में दर्द था। सीढ़ियां चढ़ नहीं सकती थी। राजा साहब प्रायः दिन-दिन भर छत पर पड़े रहते और मुहब्बत दिन-दिन भर अपने कमरे में अकेली । डाक्टर नित्य पाते। पहले देखते मुहब्बत को, फिर अपर जाकर राजा साहब को। नीचे उतरकर फिर मुहब्बत से बात करते । बात किम ढंग पर, किस मज़मून की होती थी, इसका तीसरा साक्षी शारदीय वातावरण. एकांत एकाकी मिलन, वेश्या और वेश्या की पुत्री। राजा बूढ़े, शरावी, सनकी और रोगी तथा गैरहाजिर 1 डाक्टर को प्रवेश की स्वतंत्रता, एकान्त सहवास की स्वतंत्रता, और चाहे जब तक भीतर रहने की स्वतंत्रता ; एक चमड़े का हैंडबैग हाथ में ले जाने और ले पाने की स्वतंत्रता । इन सबने धुलमिलकर उस पेशे- पन्धी डाक्टर और उस पेशेवर वेश्या को एकसूत्र मे बांध दिया । पहले प्रेमोन्य हुआ, फिर प्रेमालाप । अब दोनों एक थे, पाप और नमकहरामी से भरपूर । निरीह मालिक से विश्वासघात करने को तैयार । कुछ दिन संकेतवार्ता चली। फिर एक दिन खुल कर बातचीत हुई। डाक्टर ने कहा-~-मुहब्बत, इस तरह कब तक चलेगा? 'यही मैं कहती हूं। 'तब ?' 'चलो, कहीं भाग चलें। - . ११.०० एक दिन अवसर पाकर मुहब्बत ने कहा---एक बात कहती हूं। 'कहो।' 'किसीसे कहोगे तो नहीं । 'नहीं।' 'जिन्दा न रहने पाओगे।' 'तो साथ ही मरेंगे। तुम बात कहो ।' 'वह सेफ देख रहे हो?'