पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६७

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मुहब्वत 'लेकिन इस दौलत को यहीं छोड़ जामोगी।' 'तो क्या जेल काढूंगी ?" 'जेल बेवकूफ काटते हैं।' 'मैं पक्की बेबकूफ हूं।" 'लेकिन मैं जरा भी बेबकूफ नहीं।' 'तो तुम यह दौलत लूट लेना चाहते हो ?' 'पहले एक बात बताभो।' 'क्या ? 'इस सेफ की बात किसीको मालूम है ?' 'सेफ को तो सभी ने देखा है।' 'नहीं। रकम ।' 'न । किसीको नहीं मालूम ।' 'क्या कुंवर साहब को भी नहीं ? 'नहीं। उन्हींसे छिपाकर तो यह रकम और जवाहराल रखे गए हैं। 'किसलिए?' 'हविश । जवाहरात तो सब रानी साहिबा के हैं।' 'उन्हें मालुम है ? 'ठीक कहती हो?' 'परसों स्वयं राजा साहब ने कहा था। इस रकम की कभी किसीके सामने चर्चा भी न करना। 'और तुम्हें उन्होंने ताला खोलना, बन्द करना भी बता दिया ?' 'दो-एक बार देखा, मैं समझ गई।' 'क्या राजा जानता है कि तुम इसे खोल सकती हो ?' 'नहीं। मैने कल ज्यों ही मजाक से हाथ लगाया था, सेफ खुल गया।' 'तो यह हमारा-तुम्हारा भाग्य है, मुहब्बत, रे-तुम्हारे बीच ईमान है। मेरी गंगा, तुम्हारा कुरान 'कस्म खाओ।' 'खाई भई।'