पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२६८

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२५८ रजवाड़ो की कहानिया 2. 'कल से चारपाई पर पड़ जाओ; मैं रोज पाऊंगा, खाली बैग लेकर । और जितना उसमें समा सकेगा भर ले जाऊंगा । राजा साहब कव ऊपर जाते हैं ?' 'चाय-पानी पीकर नौ बजे।' 'मैं दस बजे पाऊंगा।' 'लेकिन राजा यदि कभी सेफ खोले ?' 'हमें मिर्फ एक हफ्ता लगेगा।' 'इसी हफ्ते में यदि वात खुल गई ?' डाक्टर की प्रांखों में चमक श्राई। उसने मुहब्बत का हाथ कसकर पकड़ा और कहा-एक हफ्ते में भी नहीं और उसके बाद भी नहीं। एक काम कर सकोगी? 'क्या ?' 'चाय के साथ डाक्टर की ज़बान लड़खड़ाई । मुहब्वत ने घबराकर कहा—न भई, यह काम मुझसे न हो सकेगा। 'बेवकूफी मत करो, मैं डाक्टर अनाड़ी नहीं । शक-शुबा किसीको न होगा। काम ऐसी सफाई से होगा।' 'अरे बाबा, फांसी पड़ेगी, फांसी' 'क्या बातें करती हो, मुहब्बत ! सिर्फ दो कतरे चाय में डाल दो। चाय तो तुम्हीं बनाती हो?' 'हां, परन्तु उससे क्या होगा ? क्या यह जहर है।' 'जहर तो है लेकिन राजाइससे मरेंगे नहीं। सिर्फ बदहवास हो जाएंगे। उनका दिमाग फेल हो जाएगा।' 'इसके वाद ?' 'इसके बाद हमारे लिए अवसर ही अवसर चतुर डाक्टर ने उस औरत को हिम्मत कायम करने का अवसर दिया और तेजी से चल दिया । मुहब्बत एकदम मसनद पर से उठ गई। राजा साहब यों तो हमेशा ही किसी न किसी शाही बीमारी से मुब्तिला रहते थे। कभी सर्दी, कभी जुकाम ; कभी कुछ, कभी कुछ । मगर यह तो उनकी तन्दुरुस्ती के ही अन्तर्गत था । आज एकाएक उनकी तबियत में परिवर्तन- सा लगा । वे ऊपर धूप में जाने लगे तो सीढ़ियों पर लड़खड़ाकर गिरकर उठे।