पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२७५

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राजा साहब की कुतिया मिस जुबेदा; जी हां, यही नाम था उसका । राजा साहब ने मुझे जुवेदा ही की नौकरी पर बहाल किया था। वस समझ लीजिए-जुबैदा का व्य टर, गाजियन, प्राइवेट सेक्रेटरी सब कुछ मैं ही था। राजा आह्व उसे बेहद प्यार करते थे। जब मुझे नौकरी पर वहाल किया तो उन्होंने कहा था-बर्द्धरदार, जुबेदा को तुम्हारी निगरानी में सौंपकर मैं बेफिक्र हुआ । लेकिन खवरदार, तुम एक लहमे के लिए भी बेफिक्र न होना। नज़र कड़ी रखना और दिल न । जुवेदा कमसिन है, बेसमझ है-मिजाज उसका नाजुक है। वह बहुत ऊंचे खानदान की औलाद है ; ऐसा न हो आवारा हो जाए, या उसकी आदतें विगड़ जाएं। जुवेदा मुझसे जल्द हिलमिल गई। और मैं भी उसे प्यार करने लगा। बस, मैं अपनी नौकरी पर खुश था । और नौकरी मेरी रास पर चढ़ गई थी। राजा साहब जिद्दी और झक्को परले सिरे के थे। पुराने जमाने के खान- दानी रईस थे। हमेशा कर्जे से लदे रहते, फिर भी सभी तरह की लन्तरानियां लगी ही रहती थीं। कर्जा और लन्नरानियां साथ-साथ न चलें तो रईस ही क्या उम्र साठ को पार कर गई थी। भारी-भरकम तीन मन का शरीर, बड़ा रुमावदार चेहरा, शेर की दहाड़ जैसी आवाज, लाल-लाल आंखें ! कियकी मजाल थी कि उनकी आंखो से शांखें मिलाए । बात-बात में शान । पीते भी खूब थे, मगर अकेले । किसीको साथ बैठाना शान के खिलाफ समझते थे। तीन-चार पैग चढ़ाने के बाद जब सवारी गठ जाती तव उनकी दहाड़ से कोठी दहलने लगती थी। उस समय जुबेदा को छोड़कर और किसीको मजाल न थी जो उनके पास फटके। गर्मी की मुसीबत से बचने के लिए राजा साहब मसूरी की अपनी कोठी में मुकीम थे । बहुत भारी कोठी थी। सुबह का वक्त था । रात बूंदाबांदी हुई थी। ठण्डी हवा चल रही थी। मौसम सुहावना था । और राजा साहब खुश थे। वे हाथ में एक पतली छड़ी लिए कमरे में टहल रहे थे। एक खिदमतगार पान- दान और दूसरा उगालदान लिए अगल-बगल चल रहा था। दो लठत पोछे । क्षण-क्षण पान खाना और उगालदान में पीक डालना उनको आदत थी ! जुबेदा उनके साथ थी और उसकी अर्दल में अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद मैं भी हाजिर था। जुबेदा चुहल करती, कभी आगे और कभी पीछे चक्कर खाती चली जा रही थी। राजा साहब देखकर खुश हो रहे थे। सच पूछिए तो जुबेदा को दे जान से बढ़- ।