पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२७६

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रजवाड़ो की कहानिया कर चाहते थे। असल में जुबेदा एक बहुत ही उम्दा नस्ल की नाजुक विलायती कुतिया थी और राजा साहब ने गत वर्ष उसे मसूरी ही में पन्द्रह सौ रुपयों में खरीदा था। अभी फाटक मुश्किल से कोई चालीस-पचास कदम था कि एक बुलडाग फाटक में घुस प्राया। उसे देखते ही जुबेदा बेतहाशा उसकी ओर भाग चली। राजा साहब एकदम बौखला उठे । वे पागल की तरह, 'पक डो-पकडो' चिल्लाने उसके पीछे भागे। उनके पीछे जुबेदा का प्राइवेट सेक्रेटरी मै, और मेरे साथ लठंत, खिदमतगार अगल-बगल । जिनकी राजा साहब पर नजर पड़ी और जिसने उनकी ललकार सुनी, भारा चला । कोठी में हड़बोंग मच गया। फाटक पर जाकर राजा साहब हांफते-हांफते बदहवास होकर गिर गए । और हम लोगों को मीलों का चक्कर लगाना पड़ा । खुदा की मार इस जुबेदा की बच्ची पर ! भागते-भागते कलेजा मुंह को आने लगा। पतलून चौपट हो गई। नया जूता बर्बाद हो गया। पाखिर जुवेदा और जिम दोनों पकड़े गए । और उन्हें खूब मुस्तैदी से बांध दिया गया । खुशखबरी सुनाने जब मैं राजा साहब के कमरे में पहुंचा तो वे बफरे हुए शेर की तरह दहाड़ रहे थे। सब खिदमतगार, लठैत, नौकर हाथ वांधे चुप खड़े थे। राजा साहब कह रहे थे-सवको गोली से उड़ा दूंगा। नामाकूल मर्दूद !! मेरे पहुंचने पर वे लाल-लाल प्रांखों से मुझे घूरने लगे। मैंने डरते- डरते हाथ जोड़कर कहा-सरकार, दोनों को पकड़ लिया है। 'बांधा उनको?' !! 'अलग-अलग ?' 'सरकार !' 'यही मुनासिब सज़ा है, लेकिन उस आवारा कुत्ते की जुर्रत तो देखो। मुझे हैरत है । क्या तुम जुबेदा की खानदानी इज्जत जानते हो ?' मैंने कहा-~-जी हां, हुजूर ने उसे पन्द्रह सौ रुपयों में खरीद लिया था। 'बेहूदा बकते हो, खरीद किया क्या माने ? पन्द्रह सौ रुपया क्या जुबेदा की कीमत हो सकती है ? - 'जी हुजूर