पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२९१

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नही २८१ 'यही तो दीदी, इसीसे तो मैं सोचती हूं, इसमें उनका ऐसा कुछ अपराध भी तो नहीं हैं, पर दाबूजी यह बात समझते ही नहीं हैं !' 'फिर भी मैं तुझमे यह पूछने आई हूं कि आखिर लोगों की निन्दा-प्रशंसा की अवज्ञा करने का तेरा साहस कहां तक स्तुत्य है !' 'नही दीदी, साहस नहीं, तुम तो जानती ही हो कि मैं एक कमजोर और असहाय नारी हूं, मैंने कभी भी अपने को शक्तिवान् समझकर घमण्ड नहीं किया। 'यही तो। पर यह तो तुम जानती ही हो कि नारी के लिए पुरुष को पाना कितना कठिन है, इसीमे तो पुरुष को पाकर स्त्रियां सौभाग्यवती कहाती हैं।' 'क्यों नहीं, मैं यह भी जानती हूं कि नारी के लिए पुरुष को पा जाना जितना कठिन है, पुरुष के लिए स्त्री को पा जाना उतना ही आसान है।' "यहाँ तक तो कुछ हानि नहीं थी दाखी, पर पुरुष को पा बाना स्त्री के लिए जितना कठिन है उतना ही उसका गंवा देना भी है।' 'है तो, और पुरुष के लिए स्त्री का पा जाना जितना आसान है, उतना ही खो देना भी है,' दक्षिणा ने एक फीकी मुस्कान होंठों में भरकर कहा। अन्नपूर्णा हसी नहीं। उसने कुछ कठोर होकर कहा-यह तो बहुत भारी वैषम्य । कैसे हम इसे सहन करेंगी ? 'दीदी, सहन न करेगी तो क्या लड़ेंगी ? जो प्यार और पादर की वस्तु है, उससे लड़ाई कैसी ?' 'प्यार और आदर अपने स्थान पर हैं।' "हां, प्यार और आदर का स्थान तो उनका सम्पूर्ण ही व्यक्तित्व है, दीदी !' 'पागलपन की बातें हैं, सम्पूर्ण व्यक्तित्व नही, केवल कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व । 'मोह दीदी, तुम भी सौदा करने लगीं ? कहीं प्यार भी हिसाब-किताब से माप-तोलकर होता है ? 'नहीं होता, पर मैं कहती हूँ कि स्त्री-पुरुष के बीच मे प्यार ही तो एक चीज नहीं है, और भी कुछ है।' 'दीदी, तुम जो कुछ कह्ना चाहती हो, मैं सब जानती हूं। तुम अधिकार की लड़ाई लड़ने की सलाह दे सकती हो। तुम नर-नारी के समान अधिकार-तत्व की पण्डिता हो, परन्तु 'परन्तु-वरन्तु कुछ नहीं। मैं कहती हूं, दाम्पत्य-युद्ध में स्त्री की विजय