पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२९३

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नहीं २८३ 'अरे, इसीसे तेरा मुंह ठहर में रसोई में जाकर चार और जलपान बना लाती हूं।' 'तुम यहां ठहरी दीदी, मैं जाती हूं।' परन्तु दोनों साथ ही साथ रसोई में जाकर चाय का सरंजाम जुटाने में व्यस्त हो गई। पन्द्रह बरस बाद। पुरानी सारी दुनिया बदल चुकी थी। जीवन-उपा की रक्ताभ पीत प्रभा ढलती दुपहरी में बदल चुकी थी। पुरुष को लोलुप दृष्टि जिस लिए नारी को परेशान करती है, लज्जा को पीड़ित करती है, आज उससे तो दक्षिणा को मुक्ति मिल चुकी थी। इतने दिन बाद एकाएक पति ले जाने के लिए पाए थे। उन्होंने एक अनुतापपूर्ण पत्र लिखकर दक्षिणा को अपने असहाय जीवन से सुचित किया था और यह भी लिखा था कि उनके जीवन में अद केवल दक्षिमा की दक्षिणा शेप है। दक्षिणा के हृदय मे एकान्त-मिलन को जरा भी व्यग्रता न थी। फिर भी ढलते हुए यौवन और तब से लेकर अब तक के दैहिक क्रम-विकास पर आज अपरिचित रूप ही से उसका ध्यान आकर्षित हो रहा था। उन दिनों की वह चाह अब न थी। आंखें चार होते ही आंखों के कोनों से निकलती आग की चिगा- रियां बुझ-बुझाकर राख हो गई थीं, वह राख भी आंसुओ से धुलकर कहाँ की कहां पहुचो थी। १५ वर्ष की मूक वेदना, प्रात्म-संयम और चिरदमन की जो रेखाएं उसके मुख पर अंकित हो गई थीं, वे तो दूर से पड़ी जा सकती थीं। सो अव अन्ना दीदी ने लपकते हुए आकर उसने कहा-~~यह क्या ? सन्ध्या होने को आई, तूने न कपड़े बदले, न बाल बनाए । उठ, मैं चोमे ग्रंथ दूं। अम्मा होती तो क्या इसी भांति अन्ना दीदी की पाखें भर आई। परन्तु दक्षिणा ने मूसी प्रांतों से उसकी ओर देखकर कहा-नित्य हो तो ऐसी ही रहती हूं दीदी, इस बेला मुझे बाल सवारने की आदत नहीं। 'न सही, पर आज तो!" 'पाज क्यों ? 'तू ऐसी बच्ची है, फिजूल बक-द्रक न कर ! उठ, चोटी गूंथ हुँ ।'