पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२९४

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२८४ भाव कहानिया 'चोटी गूंथना है तो गूंथ दो दीदी, परन्तु इससे लाभ ?' 'लाभ ? इतने दिन बाद वे आए हैं, सो ऐगे वेश में मिलेगी तु !' 'पर मुंह तो बदल नहीं सकूँगी।' 'न सही, पर कपड़ा-लत्ता" 'व्यर्थ है दीदी, जिस रूप का प्रयोजन और पाकर्षण दोनों ही खतम हो चुके, अब उसे कृत्रिम रूप से सजाकर उन्हें यदि धोखा दूं तो क्या यह अच्छी बात होगी? 'धोखा क्या?' 'कि नहीं, अभी खत्म नहीं हुआ, यही दिखाकर।' 'श्रोह, किन्तु 'किन्तु क्या दीदी, कहो तो-स्त्री की देह ऐसी तुच्छ चीज है कि उसके रूप-सौष्ठव को छोड़कर उसका और कोई उपयोग ही नहीं ?' अन्ना दीदी रो दी। अन्ना नहीं, उसका चिरवैधव्य रो उठा। उन्होने कहा-~-दाखी, इन भाग्यहीन पुरुपों की अभिलाषानों की बात न पूछ। तुझे दुनिया की तरफ नहीं देखना हो तो मत देख ; परन्तु श्रादमी की ओर तो देख, उसके दुर्भाग्यपूर्ण, अपूर्ण और असंयत व्यक्तित्व को तो देख। 'सो तो मैंने अपने जीवन में देखा ही है, दीदी ।' 'तो देख, भाग्य-दोष से हो या स्त्री-जाति में जन्म लेने के कारण, हमे अपना जीवन उत्सर्ग के मार्ग पर तो ले जाना ही है । यह शृंगार जो हमें करना पड़ता है सो क्या अपने लिए? इसे क्या हम अपनी आंखों देखती हैं ?' 'नहीं, तुम्हारी बात मानती हूँ, हम अपने इस शृंगार को अपनी आंखो से नहीं देखती, पुरुष की आंखों से देखती हैं; परन्तु दीदी, तुम्हारा जो यह उत्सर्ग है सो सत्य नहीं । मैंने इसे कभी नही माना है, अब भी नहीं मानूंगी।' 'क्यों भला ? क्या तू समझती है, हम लोगों में उत्सर्ग होने का बल है ही नहीं ? 'क्यों नहीं, बहुत है।' 'तो फिर? 'फिर ? उत्सर्ग का बल होने ही से क्या होता है दीदी, प्रवृत्ति होनी चाहिए, अन्तःप्रेरणा होनी चाहिए। निराशा और बांसुओं से भीगकर भी कहीं उत्सर्ग