पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२९५

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नही २८५ होता है ? 'तू समझती है कि स्त्रियों में उत्सर्ग की प्रवृत्ति ही नहीं है ?' 'प्रवृत्ति है, पर यह प्रवृत्ति उनके भीतर जो नारी को जागरित सत्ता है न, उसकी पूर्णता से नहीं, शून्यता से उत्पन्न होती है। उससे न तो नारी-जाति का कभी भला हुआ, न वे पुरुष का भी कुछ भला कर सकों !' 'दास्त्री, मैं तो समझतो रही हूं कि त्याग, उत्सर्ग और प्यार सब एक ही वस्तु है और उत्सर्ग स्त्री का स्वभाव है।' 'नहीं दीदी, स्वभाव नहीं, प्रभाव है । भाग्य ने तुम्हें चिर वैधव्य दिया दीदी, तुम्हें त्याग और विसर्जन का जीवन अपनाना ही पड़ा। अब तुम्ही कहो, इसमें तुम्हें कितना तप करना पड़ा? कितनी निष्ठा खर्च करनी पड़ी? अब तुम मुझसे क्या यह कहना चाहोगी कि जीवन का श्रेय वैधव्य है, जहां तप है, त्याग है, उत्सर्ग है।' 'प्रोह ! नहीं, नहीं, मैं यह कभी न कहूंगी। मैं तो कहूंगी, वैधव्य की अपेक्षा ती स्त्री के लिए एक हिंस्र पशु की पत्नी बनने में कहीं नारीत्व की सार्थकता 'तो दीदी, तुम्हारी यह बात जितनी ही सत्य है, उतनी ही भयानक भी हैं। यह तुम्हारे उस समान अधिकारों की परम्परा से बिलकुल ही पृथक् सत्य है ! और मैं उसे ठीक सत्य स्वीकार करती हूं।' अन्ना दीदी ने बहुत प्रांसू बहाए । स्नेह से दक्षिणा को अंक में भर लिया। कहा दाखी, तेरा सत्य मैंने इतने निकट रहकर भी कभी नहीं समझा। पर प्राण समझा। तेरे पति ने जो तेरा तिरस्कार किया, तुझे धोखा दिया उसकी जो तूने कभी किसीसे शिकायत नहीं की और संसार-भर के युग के मानव-स्वीकृत इस सम्बन्ध के प्रति जो तूने इतनी जबर्दस्त अवज्ञा को उसका भेद भी जाना, परन्तु दाखी, अविचार से केवल एक ही पक्ष क्षतिग्रस्त नहीं होता, दोनों ही पक्षों को आघात लगता है। उस दिन जब तुझे दुलहिन के रूप में तेरे पति ने पाया था, तब उसने अपने सौभाग्य की ओर देखा ही नहीं था। आज उसे यह सूझ भाई है, सो नू श्रृंगार करके, जो खत्म हो चुका, 'अभी है, वह अभी है' यह प्रमाणित करके उसे धोखा देना नहीं चाहती; सत्य रूप में जो है, उसके सामने जाना चाहती है, सो ठीक है।