पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२९६

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२८६ भार कहानिया 'यही बात है, दीदी। जो क्षणभंगुर है, उसकी अोर पुरुषों को देखने का चस्का लग गया है। वह इस सिल की अपेक्षा उस फूल को ज़्यादा पसन्द करते है। सत्य क्या है, इसकी जांच का मापदण्ड तो उनके पास है ही नहीं। परन्तु हम स्त्रियां तो जानती हैं कि जीवन चाहे जितना भी क्षणभंगुर हो उसका सब कारवार स्थायित्व को लिए हुए है। और इसीसे हमारे लिए उस फूल की अपेक्षा यह सिल-लोढ़ा ही अधिक सत्य है । इसके जल्दी सूखकर झड़ जाने का भर नहीं है।' 'सो आज उस सिल-लोढ़ा ही की पूजा का पवित्र दिन है ?' "कौन जाने, तुम तो जानती ही हो दीदी, पुरुषों को इसकी आदत नहीं।' 'तेरी जैसी स्त्रियां पुरुषों को ऐसी आदत डाल देती हैं जो युग-युग तक उनका भला करती हैं। तूने पति को अब तक दिया ही है, उससे कभी कुछ लिया नहीं। पिता के इतना कहने पर भी डिग्री के रुपाए नहीं लिए।' 'तुमसे तो कुछ छिपा रहा नहीं, दीदी। मां और बाबूजी के न रहने पर तुम्ही एक रही जिसका मुझे सहारा रहा ।' ‘पर मुझसे भी तो तूने कभी एक घेला नहीं लिया। तूने कुली-मजदूरों के कपड़े सी-सीकर गुजर की, पर जिस पुरुष ने पति होकर त्याग दिया, उसका अन्न मुंह में देकर, उसीके दिए वस्त्र पहनकर पावरू बचाना स्वीकार नहीं किया।' दक्षिणा इस बार रो दी । उसने कहा- दीदी, इतनी पोछी बनने से पहले तो मै कुएं में कूदकर मर जाना अच्छा समझती। -