पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२९८

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२८८ भाव कहानिया . प्राणियों का वास है जिस प्रकार हमारी पृथ्वी पर ? वहां का भी वातावरण क्या लोगों के हमने-रोने और व्यस्त नागरिक कोलाहल मे परिपूर्ण है ? वहा भी क्या बच्चों की पौध उगती है ? वहां भी क्या, ऐमा ही है जैसा कि यहा; कुछ बच्चे गुलाब के फूल के समान मुन्दर, मुहावने, उत्फुल्ल, कुछ मूग्वे, मुर्भाए, झुके हुए, कुत्सित और निष्प्राण ? कहीं सुख, कहीं दुःख, कहीं हास्य, कहीं रुदन; कही प्रकाश; कहीं अन्धकार; कहीं बहुत और कही कुछ भी नहीं ? ऐसा ही क्या वहा भी है ? परन्तु उस सुख-दुःख से परिपूर्ण जीवन-काल में केवल यह प्रकाशमान टिमटिमाता ही रूप क्यों दीखता है ? चन्द्रमा के मृगलांछन पर उसकी दृष्टि जब गई, वह सोचने लगा; क्या ये चन्द्रलोक के पर्वत हैं या सूखे समुद्र ? वहा क्या अभी जीवन है ? लोग कभी कुछ कहते है, कभी कुछ। उनके अनुमान ही तो हैं। अभी कोई चन्द्रलोक में गया तो है नहीं। यह चन्द्रलोक शुक्र, बृहस्पति सप्तर्षिमण्डल ध्रुव क्या कभी इस धरती के मनुष्यों का चरणस्पर्श करेगा ? या ये सब असहाय जन भूख, प्यास और प्रभाव से जर्जरित होकर ही मर जाएगे। उसकी विचारधारा वदली। वह सोचने लगा, क्या प्रभावग्रस्त होकर मरने ही के लिए मनुष्य ने जीवन धारण किया ? जीवन तो प्रभाव का नाम नही है। फिर जीवन प्रभाव से परिपूर्ण क्यों है ? जीवन को समाज-नियन्तायो ने सीमित किया है, संयम से। इसी संयम ने उसे प्रभावों से भर दिया है। भूख लगने पर वह उस पड़ोसी का अन्न छीनकर नहीं खा सकता जिसके पेट भर खाने पर भी बहुत बच रहा है, क्योंकि वह संयम की मर्यादा में बंधा है । प्यास से तड़पने पर, शीत से ठिठुरने पर और जीवन के सम्पूर्ण प्रभावों से वह अपने चारों ओर फैली हुई विश्व-सम्पदाओं को नहीं भोग सकता, क्योंकि वह संयम के सूत्र में बंधा है। वह स्टेशन पर जाता है । लम्बी यात्रा है। तीसरे दर्जे के डब्बों में भेड़-बकरी की भांति ठसाठस आदमी भरे हैं । फर्स्ट और सेकेन्ड क्लास के डिब्बे खाली हैं, वहा गद्देदार सुखद सीट हैं । सरसर चलते पंखे हैं। सुख है, आराम है, सुविधा है, इसीकी उसे चाह है। पर वह भीड़ और गन्दगी से भरे तीसरे दर्जे के डब्बे में जबरदस्ती घुस रहा है, इसके लिए लड़ रहा है, मनुष्यता से गिर रहा है । क्यो नहीं वह उन सुखद खाली फर्स्ट और सेकेन्ड क्लास के डब्बों में जा बैठता, जहां सब कुछ है। क्यों वह अभाव में मृत्यु ढूंढवा है भाव में जीवन नही ?