पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३००

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२६० भाव कहानिया नीचा देखना पड़ा। पड़ोसी से कांच के गिलास भांगकर शर्बत पिलाना पड़ा। एक बार वह घर के सारे अभावो पर विचार कर गई। इतनी बड़ी गृहस्थी और इनका यह हाल ! न जाने किम उधेड़-बुन में रहते है। तनिक भी तो ध्यान नहीं देते, सब मुझे ही भुगतना पड़ता है। यह गोच रही थी, उस उलझन, बोझ और जिम्मेदारी के सम्बन्ध में, उम अभाव के सम्बन्ध में जो उसे चारो ओर से दबोचे हुए थे, उसपर लद रहे थे। एकाएक पति ने कहा--ग्रहा, क्या इन नक्षत्रों में भी मनुष्य-लोक है ? वहा भी क्या प्राणियो का निवास है ? क्या कभी दश गृथ्वी के मनुप्य वहा श्रा-जा सकेगे ? न जाने कब से कितने वैज्ञानिक इन नक्षत्र-मण्डलों ने सम्बन्ध स्थापित करने की जुगत में हैं। मंगल और चन्द्रलोक में जाने के लायक तो सुना है राकर बन गए है । किराया सस्ता हो तो जरा राकेट मे बैठकर हम लोग चन्द्रलोक की सैर कर आएं । सुनती हो, चलोगी तुम ? पत्नी अपने विचारों में डूबी हुई थी। वह समझी थी पति गो गए है। उसने उनके पाराम में खलल देना टीक नहीं समभार । वह चुपचाप अपनी चार- पाई पर पा लेटी थी, और अपने विचारों में डूब-उतरा रही थी। उसने पति की पूरी बात नहीं सुनी । जो सुनी वह ठीक-टोक नहीं समझी। पति जग रहे है, यह जानते ही उसने जैसे एकाएक सावधान होकर कहा-~-क्यों जी, घर में एक भी कांच का गिलास नहीं है। बड़ी खराब बात है। प्राए-गयों के सामने कितना शमिन्दा होना पड़ता है ! पति की सारी ही विचारधारा छिन्न-भिन्न हो गई । नक्षत्र-मण्डलो से उसके सम्पर्क समाप्त हो गए। विज्ञान की विश्वव्यापिनी प्रक्रिया अन्तर्हित हो गई। उसने पत्नी के थके हुए, सूखे, नीरस, उदास गुण्य की ओर देखा, उसकी टूटी चारपाई और चारपाई की फटी चादर को देखा । अपनी सारी गरीबी से भरी हुई गृहस्थी का एक समूचा चित्र उसकी प्रोन्नों में बन गया । पत्नी के इस एक छोटे से वाक्य ने जैसे उसकी सारी ज्ञान-गरिमा को चुनौती दी हो। वह लज्जित-सा, महित-सा, अपराधी-सा, भयभीत-सा चुपचाप पत्नी की चिन्ताकुल दृष्टि को देखने लगा, जिसमें अभाव ही प्रभाव था, थकान ही थकान थी, व्यथा ही व्यथा थी, चिन्ता ही चिन्ता थी। उसके मुंह से बोल नहीं निकला ! उसे हठात् याद अाया, विवाह के समय जद +