तिकड़म ३१६ घर क्यो ? क्या बात है ? 'कुछ बात ही है, तू तैयार हो, नीचे मोटर खड़ी है।' 'लिकिन वे तो घर पर हैं नहीं !' 'तु चल तो सही बस, मैं उसे ले सीधा गांव पहुंचा । बहिन को देखते ही पिताजी ने छाती से लगा लिया। मैंने कहा-~-पिताजी, यह सारी कारिस्तानी नई शादी करने की है । जल्दी चलो, शादी रुकवानी होगी । बस हम लोग गांव के दो-तीन श्रादमियों को ले वहिन को साथ कर, सीधे औरंगाबाद जा धमके ! 'फिर क्या हुभा ?' 'जो होना था, वही हुआ। 'यानी?' 'बारात चढ चुकी थी । बरोठी हो रही थी, पकवान बन रहे थे। बैंड बज रहे थे । बन्दा मुस्करा रहा था । दिल धड़क रहा था कि सब गुड़-गोवर हो गया ! सालिगराम घरवाली और सुसर साहब को ले धूमधाम से जा धमके ! रंग में भंग पड़ गया। हमारे नए सुसर साहब जरा भलेमानुस थे। वे तो सोचते ही रहे, पर हमारे नए तीनों साले और सालिगराम चीते की तरह झपट पड़े । मोहर-दोहर तोड़ डाला। घोड़ी से उतार, जामा फाड, लात-घूसों से वह पूजा की कि यह देखो !' रामनाथ ने कुरता उघाड़ अपना बदन दिखा दिया। जगह- जगह नीले दाग पड़े थे। एक धूसा अांख पर भी पड़ा था, मगर आंख फूटी नहीं, बच गई थी। यार लोग अब जन न कर सके । बेतहाशा हंस पड़े । परन्तु रामनाथ निर्विकार रूप से सिगरेट जलाकर चुपचाप पीने लगे। बलबीर ने कहा- यह आख पर भी शायद बूंसा लगा है, क्यों ? 'हां, छोटे साले के दस्तखत है। पता नहीं, हाथ था कि यौड़ा, देहाती है साला! प्रजी बानक ही बिगड़ गया। और दो घण्टे की बात थी कि जय गगा ! फिर यही साले पैर पूजते ।' दोस्त ने कहा-खेर हुई आंख बच गई। पर यार, यह बुरा हुअा। मार यह सब तुम्हारा ही गथापन है । तुन कहते हो कि हम गधे हैं, पर हम कहते हैं,
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