पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३५

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न MAR महामात्य ने नतमस्तक होकर कहा-तो अब मैं जाता हूं। 'शिवास्ते पन्थानः सन्तु !' 'सहाराज फिर अलिन्द में अकेले रह गए। उस समय न जाने कितनी सुखद स्मृतियां उनके हृत्पिण्ड को विकसित कर रही थीं। वायु-मण्डप की एक स्वच्छ शिला पर राजकुमार सिद्धार्थ विषण्णवदन बैठे थे। उनके शरीर पर केवल एक उत्तरीय और अधोवस्त्र था। वे मानो किसी गहन चिन्ता में मग्न थे। वसत की मृदुल वायु उनके काक-पक्ष को लहरा रही थी। कुसुम-गुच्छ झूम-झूमकर सौरभ विखेर रहे थे। तप्त स्वर्ण के समान उनकी शरीर-कान्ति उन महीन वस्त्रों से विखरी पड़ती थी। उनका मुख, चिन्तन की गम्भीर भावना के कारण प्रस्फुटित कैशोरावस्था की उत्फुल्लता से रहित हो गया था ; पर उसका अप्रतिम सौन्दर्य कुछ और ही रंग ला रहा था। उनकी सुडौल गर्दन, विशाल वक्षस्थल, प्रलम्ब वाहू और केहरी जैसी ठवन असाधारण थी। सुकोमल हृद्गत भाव, सुकुमार देह और पुंस्त्व' का उद्गम एक अलौकिक मिश्रण बना रहा था। वे शिलाखण्ड पर बैठे दोनों हाथों में जानु देकर सम्मुख पुष्करिणी में खिले एक कमल पुष्प पर वारम्बार मत्त भ्रमर का प्रणय-आक्रमण देख रहे थे। परन्तु उस विनोद का कुछ प्रभाव उनके हृदय पर था—यह नहीं कहा जा सकता। उनकी दृष्टि भ्रमर पर थी अवश्य, पर वे किसी गूढ जगत् में विचर रहे थे। कभी-कभी उनके होंठ फड़क उठते और कोई शब्द-ध्वनि उनमे से निकल जाती थी। वे इतने मग्न थे कि कब कौन उनके निकट पा खड़ा हुआ है, यह उन्हें ज्ञात ही नहीं हुआ। पीछे से स्पर्श पाकर उन्होंने चौंककर देखा और सम्भ्रान्त भाव से खड़े होकर वे आगत वृद्ध पुरुष को प्रणाम करते हुए बोले-आर्य की उपस्थिति का कुछ भी भान नहीं हुआ ! वृद्ध महापुरुष ने हंसकर कहा-~-होगा कैसे, तुम स्वयं उपस्थित रहो तब न ? क्षणभर भी एकान्त हुआ, और तुम गम्भीर चिन्तन में मग्न हुए। कुमार ! क्या प्रतापी शाक्यवंश के एकमात्र उत्तराधिकारी के लिए यह उचित है ? 'आर्य क्षमा कीजिए। मैं भविष्य में इसका ध्यान रखूगा; परन्तु प्राज मेरी परीक्षा हो गई न ?'