३२ | बौद्ध कहानियां |
'आशातीत ! तुम्हारे जैसे अन्यमनस्क शिष्य से मुझे इतनी आशा न थी।सभी कहते थे कि कुमार लक्ष्य-वेध न कर सकेंगे। तुम अभ्यान ही कब करते थे? परन्तु आज तुम्हारा हस्त-लाघव देखकर मे गद्गद हो गया। कुमार मैं धन्य हुआ । तुन शाक्यवंश के दीपक होगे । मैं भविष्यवाणी करता हूं--तुम अप्रतिम योद्धा......' वृद्ध पुरुष कुमार के कन्धे पर स्नेह से हाथ रखकर उपर्युक्त वचन कह रहे थे।
कुमार ने बीच में ही बात काटकर कहा--आर्य ! पुरजन फिर लो मेरी परीक्षा की हठ न करेंगे?
'कभी नहीं, वे पूर्ण सन्तुष्ट हैं, सर्वत्र ही तुम्हारी अप्रतिम शस्त्रकला की चर्चा हो रही है । पर तुम क्या विशेष थके हुए हो ?'
'तनिक भी नहीं।'
'तब यह एकान्त-सेबन क्यों ? यह गम्भीर चिन्तन क्यों ? और यह विषयण मुखमुद्रा क्यो?'
'आर्य अत्यन्त स्नेह के कारण ऐसा विचार करते हैं परन्तु.......'अरे!महामात्य इधर ही पा रहे है--आर्य, हमें आगे बढ़कर अमात्यवर का अभिवादन करना चाहिए।'
दोनों व्यक्ति वायु-मण्डप के द्वार तक बढ़ाए। महामात्य ने हंसकर कहा--आयुष्मन् ! आज तुम आखेट में विजय प्राप्त कर आए । इस समाचार से अन्त:पुर में विशेष उल्लास हो रहा है ; महिपी की इच्छा है कि आज सभी राज-कुमारियां समुपस्थित हैं, कुमार उन्हें अपने हाथों से रत्न-माण्ड प्रदान कर उन्हें प्रतिष्ठित करें।
कुमार ने सलज्ज भाव से कहा--माता की जैसी आज्ञा ! तीनों व्यक्ति धीरे-धीरे प्रासाद की ओर चल दिए।
उपा की आलोकित रश्मि-रेखा की तरह सबके अन्त में कोलराजनन्दिनी यशोधरा ने कक्ष में प्रवेश किया, मानो उन्हें देखते ही कुमार सिद्धार्थ का चिर-निद्रित यौवन जागरित हो उठा । वे धीरे-धीरे सौरभ, आलोक और शोभा विखेरती हुई व्यास-पीठ तक पहुंचकर कुमार के सम्मुख खड़ी हो गईं; वे सिमट रही थीं और झुक रही थीं, न जाने अविकसित यौवन के भार से अथवा लज्जा