पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३६

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82 बौद्ध कहानियां 'आशातीत ! तुम्हारे जैसे अन्यमनस्क शिष्य से मुझे इतनी नाशा न थी। सभी कहते थे कि कुमार लक्ष्य-वेध न कर सकेंगे। तुम अभ्यान ही कव करते थे? परन्तु आज तुम्हारा हस्त-लाघव देखकर मे गद्गद हो गया। कुमार मैं धन्य हुा । तुन शाक्यवंश के दीपक होगे । मैं भविष्यवाणी करता हूं-तुम अप्रतिम योद्धा वृद्ध पुरुष कुमार के कन्धे पर स्नेह से हाथ रखकर उप- र्युक्त वचन कह रहे थे। कुमार ने बीच में ही वात काटकर कहा-आर्य ! पुरजन फिर लो मेरी परीक्षा की हठ न करेंगे? 'कभी नहीं, वे पूर्ण सन्तुष्ट हैं, सर्वत्र ही तुम्हारी अप्रतिम शस्त्रकला की चर्चा हो रही है । पर तुम क्या विशेष थके हुए हो ?' 'तनिक भी नहीं।' 'तव यह एकान्त-सेवन क्यों ? यह गम्भीर चिन्तन क्यों ? और यह विषयण मुखमुद्रा क्यो?' 'आर्य अत्यन्त स्नेह के कारण ऐसा विचार करते हैं। परन्तु 'अरे! महामात्य इधर ही पा रहे है-भायं, हमें आगे बढ़वार अमात्यवर का अभि- वादन करना चाहिए।' दोनों व्यक्ति वायु-मण्डप के द्वार तक बढ़ाए। महामात्य ने हंसकर कहा- आयुष्मन् ! आज तुम आखेट में विजय प्राप्त कर पाए । इस समाचार से अन्त:- पुर में विशेष उल्लास हो रहा है ; महिपी की इच्छा है कि श्राज सभी राज- कुमारियां समुपस्थित हैं, कुमार उन्हें अपने हाथों से रत्न-माण्ड प्रदान कर उन्हें प्रतिष्ठित करें। कुमार ने सलज्ज भाव से कहा-माता की जैसी आज्ञा ! तीनों व्यक्ति धीरे- धीरे प्रासाद की ओर चल दिए। उपा की आलोकित रश्मि-रेखा की तरह सबके अन्त में कोलराजनन्दिनी यशोधरा ने कक्ष में प्रवेश किया, मानो उन्हें देखते ही कुमार सिद्धार्थ का चिर- निद्रित यौवन जागरित हो उठा । वे धीरे-धीरे सौरभ, आलोक और शोभा विखे- रती हुई व्यास-पीठ तक पहुंचकर कुमार के सम्मुख खड़ी हो गईं; वे सिमट रही थीं और झुक रही थीं, न जाने अविकसित यौवन के भार से अथवा लज्जा