पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३७

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के भार से । वे सम्मुख खड़ी होकर भूमि पर दृष्टि गड़ाए पद-नख से धरती पर बिछे स्फटिक-प्रस्तर पर रेखा खींचने का व्यर्थ प्रयास कर रही थीं। कुमार चित्र-लिखित से देखते रह गए । वे जागरित भी प्रसुप्त-से थे। कुमार के निकट खड़े अमात्यवर ने कहा--राजनन्दिनी को भाण्ड-प्रदान करो मायुष्मन् । कुमार ने घबराकर इधर-उधर देखा और अस्त-व्यस्त स्वर में कहा- शुभ्रे ! तुमने अति बिलम्व किया, भाण्ड तो सभी वितरण हो चुके । राजनन्दिनी क्षण भर उसी तरह खड़ी रहीं। फिर उन्होंने ऋतु प्रणाम करके लौटने का उपक्रम किया। कुमार असंयत होकर आगे बढ़े और कण्ठ से मणिमाला निकालकर उन्होंने कुमारी के गले डाल दी। कुमारी ने हष्टि उठाकर कुमार के प्रदीप्त स्वर्ण- मुख की ओर देखा । वे पत्ते की तरह कांपने लगी और उनका मुख प्रस्वेद से भीग गया। कुमार जड़दत् खड़े थे। हठात् महामात्य ने शंख-ध्वनि की । क्षण भर में भुशुण्डिकाएं गर्ज उठीं। उसके बाद ही विविध वान-ध्वनि से राजप्रासाद गुंजायमान हो गया। कुमार ने विचलित होकर कहा-आर्य ! यह क्या हुआ? पर उन्होंने देखा, कक्ष में वे है और पुष्प-भार से भुकी हुई लतिका के समान राजनन्दिनी यशोधरा हैं। उन्होंने साहस करके कहा--राजनन्दिनी क्या प्रतिदान की अभिलापा रखती - कुमारी के अधरोष्ठ में एक क्षीण हास्य-रेखा और कपोलों पर लाली आई और गई। उन्होंने नत-जानु होकर महाराजकुमार को अभिवादन किया और उसके बाद वहां से चली गई। क्या हम प्रेम की व्याख्या करें? उन प्रेम की, जहां शरीर-सम्पत्ति प्रेम का माध्यम नहीं है ; जहा केवल प्राणों में प्राणों का लय है ; जो नेवपटल पर नहीं तोला जाता; केवल प्रात्मा जिसमें विभोर होती है; जो जीवन से मृत्यु तक और मृत्यु से परे भी वैसा ही पारिजात-कुसुम की तरह अक्षय विकसित रहता है; वासना का यहां सम्पर्क नहीं ; भोग और तृप्ति का यहां प्रसंग नहीं : अभिलाषा और अरुचि दोनों ही यहां नहीं ; जहा सुख नहीं, प्रानन्द है ; जहां कुछ भी