पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/४६

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वौद्ध कहानिया ४२ पृथ्वी पर अंधकार छा रहा था। उन्होंने फाटक पर पाकर देखा, चन्न उपस्थित है। 'चन्न, क्या तुम जागरित हो ?' 'परम परमेश्वर महाभट्टारकपादीय युवराज की जय हो ?' 'चन्न, एक घोड़ा तो ले आयो।' 'जो आना।' तारों के भीण प्रकाश में वह महान् राजकुमार राजपाट, सुख-भीग और ऐश्वर्य पर लात मारकर महान् प्रकाश की खोज में जा रहा था। 'चन्न ! क्स, अब आवश्यकता नहीं। तुम घोड़ा लेकर राजधानी लौट जाओ।' 'स्वामिन्, मैं आपको प्राण रहते न छोड़गा।' 'चन्न ! लो ये बहुमूल्य वस्त्र भी तुम ले जायो। अब कहो : तुम्हारा स्वामी कौन है ?' 'महाराज-युवराज ! यह आप क्या कह रहे हैं ?' 'ठहरो।' युवराज ने तलवार से अपने सुन्दर केश-गुच्छ काटकर तलवार चन्न के सम्मुख रखकर कहा-लो इसे भी संभालो। चन्न धरती पर गिरकर रोने लगा । वह बोला-प्रभु ! मै कदापि-कदापि न जाऊंगा। 'चन्न ! वत्स ! हठ मत करो। शोक भी मत करो, पानन्दित हो। मै सत्य की खोज में जा रहा हूं। मैं जगत् को आनन्द प्रदान करूंगा। जाओ वत्स ! पिताजी और गोपा को धैर्य प्रदान करना । एक आन्तरिक तेज से दीप्त पुरुष की तरह सिद्धार्थ चल दिए । चन्न पछाड़ खाकर गिर पड़ा। सिद्धार्थ के नेत्र सत्य के प्रचण्ड उत्साह से देदीप्यमान हो रहे थे। उनका यौवन-सौन्दर्य उस पवित्र तेज में परिवर्तित हो गया था, जो उनके श्रीमुख पर दृष्टिगोचर हो रहा था । । राजगृह महानगरी जनपूर्ण हो रही थी। प्रतापी विम्बसार वहां के सम्राट थे। जव मध्याहकाल होता-गृहस्थ भोजन कर चुक्ते-चीतरागी सिद्धार्थ