पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/४७

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४३ भिक्षा-पात्र हाथ में लिए नगर की गलियों में भिक्षा मांगने निकलते । वह प्रभा- वान् मुखमण्डल, विनव्र गति, पृथ्वी पर झुके हुए नेत्र और प्रोष्ठसम्पुट से मृदु- व्वनि से निकलने वाला 'कल्याण' शब्द नगरवासियों के लिए अपूर्व था। वे प्रत्येक घर से एक ग्रास भोजन ग्रहण करते थे, और बारह ग्रास लेकर नगर के बाहर चले जाते थे। जनपथ और राज-पय पर उनके पीछे भीड़ लगी रहती। अाबाल वृद्ध उनके लिए मार्ग छोड देते, उनके भिक्षा-पात्र में ग्रास डालकर कृतार्थ होते, और सोचते : कोई महान् मुनि नगर में आए हैं । सम्राट् बिम्बसार ने सुनकर गुप्तचरों के द्वारा जाना कि शाक्यवंश का राजपुत्र राजपाट त्याग वनवासी हुआ है। वह राजकीय वस्त्र पहन, स्वर्ण- मुकुट सिर पर धारण कर, अमात्यो सहित उससे मिलने आया। मुनि सिद्धार्थ वृक्ष के नीचे गम्भीर मुख-मुद्रा किए बैठे थे । विम्बसार ने प्रणाम कर कहा--- आपके हाथ में राज्य-रश्मि शोभा देती है, भिक्षा-पात्र नहीं । आपका तारुण्य इस तपस्या के योग्य नहीं । श्रेष्ठ और ज्ञानी पुरुषों को शक्ति-सम्पन्न होना चाहिए। धर्म खोकर धनी होना उत्तम नहीं, पर वन, धर्म और बल को प्राप्त कर जो इन्हे दूरदर्शिता से भोग करे वह मेरा गुरु है । मुनि सिद्धार्थ ने आंख उठाकर सम्राट् को देखा और कहा-राजन् ? प्राप धार्मिक और विवेकी हैं, आपका कथन सत्य है; पर मै सारे बन्धनों से पृथक् हो चुका हूं। क्योंकि मैं निर्माण का इच्छुक हूं। जिसे उस सच्चे ज्ञान की अभिलाषा है, उसे उन सब बातों से विरक्त हो जाना चाहिए जो उसके चित्त को अपनी ओर खीचती हैं। उसके लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अधिकार और वासनाओ का त्याग करना परमावश्यक है। मैंने वैभव की असारता को समझ लिया है, और अब मैं अमृत के धोखे विष-पान नहीं करूंगा। सम्राट् ! आप मुझपर करुणा करने का कष्ट न उठाइए । करुणा के पात्र वे हैं जो संसार की चिन्ता मे दिन-रात व्याकुल रहते हैं, जिनके हृदय में न शान्ति है और न मन मे एकाग्रता । हे राजन्, कहिए तो, एक राजा और भिक्षुक की मृतक देह में क्या अन्तर है ? सम्राट् बिम्बसार ने बद्धाञ्जलि होकर प्रणाम किया और कहा-हे त्यागी ! आप धन्य है ! आपकी कामना पूर्ण हो । परन्तु पाप पूर्ण बुद्ध होने पर एक बार मुम अपना शिष्य स्वीकार कर कृतार्थ अवश्य करें