पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद्ध कहानियां मुनि सिद्धार्थ ने सम्राट् की प्रार्थना को स्वीकार किया। 'हे विद्वानो ! क्या आप ही प्रसिद्ध दार्शनिक और तत्ववेत्ता पाराद और उदरक हैं ! मैं आपसे प्रात्मा के विषय को जिज्ञासा करने आया हूं!' 'हे मुनि ! हम वही हैं । तुम्हें जो संशय हो, कहो ।' 'मैं यह जानना चाहता हूँ कि आत्मा क्या है ?' 'आत्मा वह है जो देखता, चखता, सूंघता और छूता है; फिर भी वह न तुम्हारा शरीर है न अांख, कान, नाक और न मुख । आत्मा वह है जो त्वचा द्वारा छूता है, जिह्वा से रस लेता है, अांख से देखता, और कान से सुनता है।' 'हे विद्वानो ! आत्मा की मुक्ति क्या है ?' 'जिस प्रकार पक्षी पिंजरे से छूटकर स्वतन्त्रता प्राप्त करता है, उसी प्रकार आत्मा सब बन्धनों और उपाधियों से छूटने पर मुक्त हो जाता है।' 'परन्तु क्या उष्णता अग्नि से भिन्न है ? मनुष्य रूप, रस, वासना, संस्कार, बुद्धि, चित्त आदि का सङ्घात है; यही सङ्घात तो 'मैं' है; वही 'मैं' तो प्रात्मा है। तब वह भिन्न सत्ता कैसे हुई ? और जब तक वह 'अहं' शेष है, तब तक तुम्हारी वास्तविक मुक्ति कदापि नहीं हो सकती।' 'परन्तु मुनि ! क्या तुम अपने चारों ओर कर्म-फल को नहीं देखते ? वह कौन सी बात है जिसने मनुष्यों के प्राचार, विचार, अधिकार, जाति और वैभव में भिन्नता उत्पन्न कर दी है ? वह कर्म-फल ही तो है ।' 'कर्म-फल तो है ही, पर श्रात्मवाद का आधार क्या है ? संसार में कोई काम, वस्तु, फल या विचार नहीं हो सकता, यदि उसके पूर्व उसका कारण विद्यमान न हो। किसान जो बोवेगा, फसल पर वही काटेगा। परन्तु 'अहं' की भिन्न सत्ता और उसका शरीरोत्तर गमन, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है ? क्या मेरी व्यक्ति-विशेषता प्रवृत्ति और मन-दोनों का संघात नहीं है ? क्या मेरे व्यक्ति- वैशिष्ट्य में शारीरिक और मानसिक दोनों शक्तियां सम्मिलित नहीं हैं ? यदि किसी मनुष्य के अन्दर से भूख-प्यास, चलना, फिरना, रोना-हंसना प्रादि निकाल दिए जाएं तो फिर उसकी मनुष्यता की क्या सार्थकता रह गई ? इन प्राकुल और दैहिक बातों के विना मनुष्य यथार्थ में क्या है ? जिस प्रकार कल का 'मैं' माज के 'मैं' का पूर्वष है और कल क 'मैं' ने प्राज के 'मैं' में जन्म लिया है. ,