प्रबुद्ध ही मन कहा-निस्सन्देह यह मेरा पुत्र है । कुमार सिद्धार्थ का ऐसा ही रूप-रंग था। परन्तु यह महामुनि अब सिद्धार्थ नहीं रहा। वह बुद्ध है, पवित्रात्मा है, सत्य का स्वामी और मनुप्यों का शिक्षक है। वे रथ से उतर पड़े और आनन्दाश्रु बहाते हुए बोले-~आज ७ वर्ष बाद मैंने तुम्हें देखा है । क्या तुम जानते हो कि तुम्हें देखने की मुझे कितनी इच्छा थी ? प्रणाम करके बुद्ध पिता के पास बैठ गए ! राजा के जी में आया कि उनका नाम लेकर पुकारें। पर साहस न हुआ। वे मानो मन ही मन कह रहे थे-पुत्र सिद्धार्थ ! भा और पिता के पास पुत्र की भांति रह । अन्त में उन्होंने कहा~मैं यह सारा राजपाट तुम्हें सौंपना चाहता था; पर देखता हूं, राज्य को तुम तुच्छ समझते हो। बुद्ध ने कहा-~-पिता ! आपका हृदय प्रेमपूर्ण है, पर आपका जितना प्रेम मुझपर है, उतना ही यदि प्रजा पर भी हो तो आपको सिद्धार्थ से बढ़कर पुत्र मिल सकते हैं। श्राप मेरे लिए मन से पुत्र-भाव निकाल डालिए । यदि आप अपने सामने उसे बुद्ध (जानी) देखेंगे जो सत्य का शिक्षक और सदाचार का प्रचारक है तो पापको निर्वाण की शान्ति प्राप्त होगी। राजा पुत्र की यह वाणी सुनकर आह्लादित हो गए। वे आंसू भरकर कहने लगे-आश्चर्यजनक परि- वर्तन है। इस परिवर्तन से हृदय को दुःख और व्याकुलता नहीं होती। पहले मैं शोकपूर्ण था, मानो मेरा हृदय फट जाएगा । अब मैं प्रसन्न हूं। तुमने जगत् के लिए राज्य-सुख त्यागा। अच्छा, तुम संसार में अष्टाङ्ग मार्ग का प्रचार करो। प्रातःकाल भगवान् बुद्ध भिक्षा-पात्र लेकर नगर में भिक्षा के लिए चले। नगर में हाहाकार मच गया। रथ और हाथियों पर सवार होकर जो पुरुष रत्न बिखेरता था, वह नंगे पैर घर-घर एक ग्रास अन्न मांगता है। राजा ने कहा-"" (वार्ता)वल्स गौतम ! ऐसा न करो, मैं तुम्हारे भोजन का प्रबन्ध कर दूंगा। "पर यह हमारी धर्म-परिपाटी है।' 'पर तुम उस राजवंश के हो जिसने कभी मिक्षा नहीं मांगी।' 'मैं उस बुद्ध वंश में हूं जो सदा भिक्षा-वृत्ति पर सन्तोष करता आया है।' राजा अवाक् हो, उन्हें राजमहल में ले पाए । राजमन्त्रियों और अन्तःपुर की स्त्रियों ने बुद्ध की अर्चना की।
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