पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/५४

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go बौद्ध कहानियां । दुद्ध ने पूछा-गोपा कहां है ? वह क्यों नहीं आई? एक दासी ने बद्धाञ्जलि होकर कहा--स्वामिन, वे कहती है, भगवान् को स्वयं ही उनके पास पाना चाहिए। बुद्ध तत्क्षण उटकर चल दिए। चार प्रमुख शिप्य उनके साथ थे। गोपा--- आनन्द और प्रेम की मधुर लतिका गोपाअपने सप्तवर्षीय पुत्र के साथ अपनी समस्त कटु स्मृतियों को कसकर छाती में छिपाए, उस महावीतरागी, अनीत त्रिय पति को धरती पर दृष्टि दिए अपने कक्ष प्राते देख रही थी। द्वार के निकट पहुंच बुद्ध ने अपने शिष्य सारिपुत्र मौद्गलायन में कहा-मैं तो माया- पाश से मुक्त हुआ, पर यशोवरा अभी बद्ध है। उसने मुझे चिरकाल से नहीं देखा। वह वियोग से व्याकुल है । यदि मिलन-अभिलाषा अब भी पूर्ण न होगी तो उसका हृदय फट जाएगा। इसलिए मैं तुम्हे सावधान किए देता हूँ कि यदि वह मुझे छूना चाहे तो रोजाना मत ! सारिपुत्र मौद्गलायन ने विनम्र होकर कहा-जैसी भगवान् की आज्ञा । वह मलिनवस्त्रा और धूलि-धूसरितवेशा, केशविहीना यशोधरा, मूर्ति- मती, वियोग और विपाद की छाया चुपचाप खड़ी एकटक उन्हें देख रही थी। वह इस बात को भूल गई कि उसका पति अब जगद्गुरु और सत्य का अन्वेपक है। वह सम्मुख पाते ही बुद्ध के पैर पकड़, फूट-फूटकर रोने लगी। जब वह प्रकृतिस्थ हुई तब उसने श्वसुर को देखा और हट गई। राजा ने कहा-यह उसका मनोदेग नहीं है, हृदयस्थ प्रकृत प्रेम के स्रोत का प्रवाह है । जब उसे ज्ञात हुआ कि तुमने केश काट डाले हैं, तब उसने भी इसका अनुसरण किया। जब उसने सुना कि तुमने सभी भोजन त्याग दिए, तब उसने भी सब कुछ छोड़ दिया। यह मृत्पात्रों में खाती और भूमि पर सोती है। उससे बड़े-बड़े राज- कुमारों ने विवाह की प्रार्थना की, तब उसने कहा-मेरे स्वामी का मुझपर पूर्ण अधिकार है, और मैं अब भी उनके चरणों की दासी हूं। बुद्ध ने करण एवं गम्भीर स्वर में कहा-~-कल्याण बुद्धे ! तुम धन्य हो । तुम बड़ी पुण्यात्मा हो। तुम्हारी पवित्रता, सुशीलला और भक्ति ने मुझे लाभ पहुंचाया है और मैं सत्य ज्ञान को उपलब्ध कर चुका हूं। तुम्हारा हादिक दुःख और शोक अवर्णनीय है । परन्तु तुमने जो आध्यात्मिक सम्पत्ति अपने श्रेष्ठ और