बौद्ध कहानिया और निकट ही कोई जल-गर्भस्थ चट्टान है। आप लोग सावधानी से तरणी का संचालन करें। इतना कहकर उसने एक दृष्टि चारों ओर डाली। क्षण-भर बाद ही तरणी चट्टान से जा टकराई । कुमारी संघमित्रा औंधे मुह गिर पड़ी, और समस्त सामग्री अस्त-व्यस्त हो गई । कुमार ने देखा, चट्टान जल से ऊपर है। वे उसपर कूद पड़े। खड़े होकर उन्होने अनन्त जल-राशि को चारों ओर देखा। इसके बाद उन्होने साथियों से संकेत करके, नीचे बुलाकर कहा-हमें यहीं रात काटनी होगी। प्रातःकाल क्या होता है, यह देखा जाएगा। सबने वहीं फलाहार किया, और उस ऊबड़-खावड़, उजाड़ और सुन- सान, क्षुद्र चट्टान पर वे चौदह व्यक्ति विना किसी छांह के अपनी-अपनी बाहो का तकिया लगाकर सो रहे । प्रातःकाल सूर्य की सुनहरी किरणें फैल रही थीं। समुद्र की उज्ज्वल फेन- राशि पर उनकी प्रभा एक अनिर्वचनीय सौंदर्य की सृष्टि कर रही थी। समुद्र शात था, जलचर जन्तु जहां-तहां सिर निकाले, निश्शंक, स्वच्छ वायु में, श्वास ले रहे थे । कुछ दूर छोटे-छोटे पक्षी मन्द कलरव करते उड़ रहे थे ; वे नेत्र और कर्ण दोनों को ही सुखद थे। महाकुमारी प्रार्या संघमित्रा चट्टान पर चढ़कर, सुदूर पूर्व दिशा में पाख गाडकर कुछ देख रही थीं। महाराजकुमार ने उसके निकट पहुंचकर कहा- आर्या संघमित्रा क्या देख रही हैं ? संघमित्रा के होंठ कंपित हुए । उसने संयत होकर, विनम्र और मृदु स्वर मे, कहा-भिक्षुवर ! जिस पृथ्वी को हमने छोड़ा है, वह यहीं सम्मुख तो है। पर ऐसा प्रतीत होता है मानो युग व्यतीत हो गया और माता पृथ्वी के दूसरे छोर पर हम पा गए । सोचिए, अभी हमें और भी आगे, अज्ञात प्रदेश को जाना है। क्या वहां हम ठहरकर सद्धर्म-प्रचार कर सकेंगे? देखो, प्रियजनों की दृष्टियां हमे बुला रही हैं, यह मैं स्पष्ट देख रही हूं। उसने अपना हाथ दूरस्थ पहाड़ियों की धुवली छाया की तरफ फैला दिया, जहां पृथ्वी और आकाश मिलते दीख रहे थे। इसके बाद उसने महाकुमार की ओर मुड़कर कहा-~भाई, नहीं नहीं, भक्षुराज ! चलो लौट चलें । घर लौट चलें। सद्धर्म-प्रचार का अभी वहां बहुत क्षेत्र है। महाकुमार ने कुमारी के और भी निकट पाकर उसके सिर पर अपना शुभ
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