भिक्षुराज ५७ हस्त रक्खा, और मन्द-मन्द स्वर से गम्भीर मुद्रा से कहा-~शांतं पापम् आर्या संघमित्रा | शांत पापम् । महाकुमारी वहीं बैठकर नीचे दृष्टि किए रोने लगी। कुमारी की वाणी गद्गद हो गई थी। उसने कहा-भार्या ! हमने जिम महानत की दीक्षा ली है, उसे प्राण रहते पूर्ण करना हमारा कर्तव्य है । सोचो, हम असाधारण व्यक्ति है। हमारे पिता चक्रवर्ती सम्राट् हैं। मैं इस महाराज्य का उत्तराधिकारी हूं। मैं जहां भिक्षाटन करने जा रहा हूं, कदाचित् उसका राजा करद होकर मेरे पास भेंट लेकर आता । परन्तु मैं उस प्रदेश की गली-गली मे एक-एक ग्रास अन्न मांगूगा, और बदले मे सद्धर्म का पवित्र रत्न उन्हें दूंगा। क्या यह मेरे लिए और तुम्हारे लिए भी आर्या संघमित्रा, अलभ्य कीर्ति और सौभाग्य की बात नहीं ? क्या तथागत प्रभु को छोड़कर और भी किसी सद्धर्मी ने ऐसा किया था ? प्रभु की स्पर्धा करने का सौभाग्य तो भूत और भविष्य में आर्या सघमित्रा ! हमी दोनों जीवों को प्राप्त होगा ; तुम्हें मुझसे भी अधिक, क्योकि सम्राट् की कन्या होकर भिक्षुणी होना स्त्री-जाति में तुम्हारी समता नहीं रखता। आर्या ! इस सौभाग्य की अपेक्षा क्या राजवैभव अति प्रिय है। सोचो ! यह अधम शरीर और अनित्य जीवन जगत् के असंख्य प्राणियों का कैसा नष्ट हो रहा है। परन्तु हमें उसकी महाप्रतिष्ठा करने का कैसा सुयोग मिला है, कदाचित् भविष्य-काल में सहस्रों वर्षों तक, हम लोगों की स्मृति श्रद्धा और सम्मान सहित जीवित रहेगी। इतना कहकर महाकुमार मौन हुए। कुमारी धीरे-धीरे उनके चरणों में झुक गई। उसने अपराधिनी शिष्या की भांति प्रथम बार सहोदर भाई से मानो भ्रातृ- सम्बन्ध त्यागकर अपनी मानसिक दुर्बलता के लिए कर-बद्ध हो क्षमा याचना की, और महाकुमार ने कर्मठ भिक्षु की भांति उसका सिर स्पर्श करके कहा--कल्याण ! इसके बाद ही नौका तैयार हुई, और वह फिर लहरों की ताल पर नाचने लगी । बारहों साथीनि स्तब्व-से समुद्र की उत्तुंग तरंगों में मानो उस क्षुद्र तरणी घुसाए लिए जा रहे थे । एक दिन और एक रात्रि की अविरल यात्रा के बाद समुद्र-तट दिखाई दिया। उस समय धीरे-धीरे सूर्य डूब रहा था, और उसका रक्त प्रतिबिंब जल में आन्दोलित हो रहा था । महाकुमारी ने सूर्य की ओर देखा और मन ही मन कहा- सूर्यदेव ! अभी उस चिर-परिचित प्रभात में मैं एक अविकसित अरविंद-कली थी। तुम्हारी स्वर्ण-किरण के सुखद स्पर्श से पुलकित होकर खिल ।
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