पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/६२

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बौद्ध कहानियां पड़ी। मैं अपनी समस्त पंखुड़ियों से खिलकर दिन-भर निर्लज्ज की भांति तुम्हे देखती रही। हाय ! किन्तु तुम कितनी उपेक्षा से जा रहे हो ! जाते हो तो जाओ, मैं अपना समस्त सौरभ तुम्हारे चरणों मे लुटा चुकी हूं। अब सूखकर रज-कण में मिल जाना ही मेरी चरम गति है। उसने प्रति अप्रकट भाव से अस्तंगल मूर्य को प्रणाम किया, और टए से एक बूंद आंसू उसकी गोद में रखे वोधि-वृक्ष पर टपक पड़ा। तट पा गया, और महाकुमार गम्भीर मुद्रा से उसपर कूद गए। उसके वाद उन्होंने मुस्कराते हुए महाकुमारी को संकेत करके कहा-श्रार्या संघ- मित्रा ! पाओ, हम अभीष्ट स्थान पर पहुंच गए । इस क्षण से यह तट निर्वाण- तट के नाम से पुकारा जाय । सबने चुपचाप सिर झुका लिया। तेरहों प्रात्माएं, एक के बाद दूसरी, उस अपरिचित किनारे पर सदैव के लिए उतर पड़ी, और प्रार्थना के लिए रेत में घुटनों के बल धरती में झुक गई ! वह राजवंशीय भिक्षु उस स्थान पर समुद्र-तट से और थोड़ा आगे बढ़कर ठहर गया । उसके तेरहों साथी उसके अनुगत थे। उन्होने उस बोधि-वृक्ष की वहां स्थापना की। पत्थर और गारा इकट्ठा करके उन्होंने बिहार बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे भवन-निर्माण होने लगे, और आसपास की अर्ध-सभ्य जातियों में उसकी ख्याति होने लगी। अॅड के झुंड स्त्री-पुरुष इस सुन्दर, सभ्य, विनम्र तपस्वी के दर्शन करने को, उसका धर्म-संदेश और प्रेममय भाषण सुनने को आने लगे। इस पुरुष रत्न के सतेज स्वर, बलिष्ठ शरीर, निरालस्य स्वभाव, आनन्द- मय और संतोषपूर्ण जीवन, दयालु प्रकृति ने उन सहनों अपरिचितों के हृदयों को जीत लिया। वे उसे प्राणों से अधिक प्यार करने लगे। उसके जोरदार भाषण में वे महाप्रभु बुद्ध को प्रात्मा को प्रत्यक्ष देखने लगे। उनके पुराने अन्ध- विश्वास---उपासनाएं कुरीतियां इतनी शीघ्रता से दूर हो गई, और वे अपने गुरु के इतने पक्के अनुगामी हो गए कि उस प्रान्त भर में उसकी चर्चा होने लगी, और शीघ्र ही यह स्थान टापू भर में विख्याल हो गया, और वहां नित्य मेला रहने लगा। धीरे-धीरे वह वन्य प्रदेश विशाल अट्टालिकामों से परिपूर्ण हो गया । अब इम प्यारे