भिक्षुराज वह एक बड़ा विहार था, और उसमें केवल वही चौदह भिक्षु न थे, किन्तु सैकडों भिक्षु-भिक्षुणियां थीं जो जगत् के सभी स्वार्थों और सुखों को त्यागकर पवित्र और त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगी थीं। समुद्र की लहरें किनारों पर टकराकर उनके परिजनों की प्रानन्द-ध्वनि की प्रतिध्वनि करती थी, और उन महात्मा राजपुत्र और राजपुत्री एवं उनके साहसी साथियों को उत्साह दिलाती थीं, और अब उनके मन में कोई खेद न था। वे सब अति प्रफुल्लित हो अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। भिक्षुराज ध्यानावस्थित बैठे कुछ विचार कर रहे थे । प्रार्या संघमित्रा वोधि- वृक्ष को सीच रही थीं। एक भिक्षु ने बद्धांजलि होकर कहा--स्वामिन्, सिपल द्वीप के स्वामी महाराज तिष्य ने आपको राजधानी अनुराधापुर ले जाने के लिए राजकीय रथ और वाहन तथा कुछ भेट भी भेजी है ; स्वामी की क्या प्राज्ञा है ? युवक भिक्षुराज ने बाहर प्राकर देखा, सौ हाथी, सौ रथ और दो सहस्त्र पदातिक एवं बहुतसे भिन्न-भिन्न यान हैं। साथ में राजकीय छत्र-चंवर भी है। महानायक के सम्मुख आ, नतजानु हो प्रणाम कर कहा---प्रभु, प्रसन्न हो। महाराजा की विनय है कि पवित्र स्वामी अनुचरों-सहित राजभवन को सुशोभित करे । वाहन सेवा में उपस्थित हैं । कुछ तुच्छ भेंट भी है । यह कहकर महानायक ने संकेत किया-तत्काल सौ दास विविध सामग्री से भरे स्वर्ण-थाल ले, सम्मुख रखकर पीछे हट गए। उनमें बड़े-बड़े मोतियों की मालाएं, रत्नाभरण, रेशमी बहुमूल्य वस्त्र, सुन्दर शिल्प की वस्तुएं, बहुमूल्य मदिराएं और विविध सामनी थी। महाकुमार ने देखा, एक क्षीण हास्य-रेखा उनके अोठों में आई, और उन्होंने महानायक की ओर देखकर गम्भीर वाणी से कहा-महानायक, भिक्षुओं के भिक्षा-पात्र में कहां यह राजसामग्री समाएगी; मेरे जैसे भिक्षुओं को इसकी आवश्यकता ही क्या ? इन्हें लौटा ले जाओ। महा- राज तिष्य से कहना, हम स्वयं राजधानी में आते हैं। भिक्षुराज ने यह कहा, और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही अपने प्रासन पर आ बैठे। राज्यवर्ग अपनी तमाम सामग्री सहित वापस लौट गया। राजधानी वहां से दूर थी, और यात्रा की कोई भी सुविधा न थी, परन्तु -
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