पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/६४

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बौद्ध कहानियां उस टापू राजा तिष्य को सद्धर्म का संदेश सुनाना परमावश्यक था। यदि ऐसा हो जाए, तो टापू भर में बौद्ध सिद्धान्तों की व्याप्ति हो जाए। महाकुमार ने तैयारी की। कुमार और बारहों साथी तैयार हो गए। और, वह दुर्गम यात्रा प्रारम्भ की गई। प्रत्येक के कन्धे पर उनकी आवश्यक सामग्री और हाय में भिक्षा-पात्र था। वे चलते ही चले गए ! पर्वतों की चोटियों पर बढ़े। घने, हिंस्र जंतुओं से परिपूर्ण वन में धुसे । वृक्ष और जल से रहित रेगि- स्तान में होकर गुजरे। अनेक भयंकर गार और ऊबड़-खाबड़ जंगल, पेचीली जंगली नदियां उन्हें पार करनी पड़ी। अन्त में राजधानी निकट आई। राजा अन्ध-विश्वासों से परिपूर्ण वातावरण में था । सैकड़ों जादूगर, मूर्ख, पाखण्डी उसे घेरे रहते थे। उन्होंने उसे भयभीत कर दिया कि यदि वह उन भिक्षु-यात्रियों से मिलेगा तो उसपर देवी कोप होगा, और वह तत्काल मर जाएगा। परन्तु उसने सुन रक्खा था कि प्रागन्तुक चक्रवर्ती सम्राट अशोक के पुत्र और पुत्री हैं । उसमें सम्राट् को अप्रसन्न करने की सामर्थ्य न थी। उसने उनके स्वागत का बहुत अधिक प्रायोजन किया । उसे खयाल था, महाराजकुमार के साथ बहुतसी सेना-सामनी, सवारी आदि होंगी। पर जब उसने उन्हें पीत वस्त्र पहने, पृथ्वी पर हष्टि दिए, नंगे पैरों धीरे-धीरे पैदल अग्रसर होते और महाराजकुमारी तथा अन्य अनुचरों को उसी भांति अनुगत होते देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया, और जब उसने सुना कि उसकी समस्त भेंट और सवारी उन्होंने लौटा दी है, और वे इसी भांति पैदल भयानक यात्रा करके आए हैं तो वह विमूढ़ हो गया। कुमार पर उसको भक्ति बढ़ गई । उसने देखा, राज- कुमार के सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल न थे, पर मुख कांति से देदीप्यमान हो रहा था। उन्होंने हाथ उठाकर राजा को 'कल्याण' का श्राशीर्वाद दिया। राजा हठात् उठकर महाकुमार के चरणों में गिर गया। समस्त दरवार के संभ्रांत पुरुष भी भूमि पर लोटने लगे महाकुमार ने प्रबोध देना प्रारम्भ किया, और कहा-~- 'राजन्, क्षमा हमारा शस्त्र और दया हमारी सेना है । हम इसी राजबल से पृथ्वी की शक्तियों को विजय करते हैं। हम सद्धर्म का प्रकाश जीवों के हृदयों में प्रज्वलित करते फिरते हैं । हम त्याग, तप, दया और सद्भावना से प्रात्मा का -