पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भिक्षुराज श्रृंगार करते है राजन् ! हम अपनी ये सब विभूतियां आपको देने आए हैं । आप इन्हे ग्रहण करके कृतकृत्य हूजिए।' राजा धीरे-धीरे पृथ्वी से उठा । उसने कहा-और केवल यही विभूतियां ही भापके इस प्रशस्त जीवन का कारण हैं ? राजकुमार ने स्थिर गम्भीर होकर कहा-हो । 'इन्हीको पाकर आपने साम्राज्य का दुर्लभ अधिकार तुच्छ समझकर त्याग दिया?' 'हां, राजन् । 'और इन्ही को पाकर आप भिक्षावृत्ति में सुखी हैं, पैदल यात्रा के कष्टों को सहन करते हैं, तपस्वी जीवन से शरीर को कष्ट देने पर भी प्रफुल्लित है।' 'हां, इन्हींको पाकर। 'हे स्वामी ! वे महाविभूतियां मुझे दीजिए, मैं आपका शरणागत हूं।' भिक्षुराज ने एक पद आगे बढकर कहा-राजन्, सावधान होकर बैठो। राजा घुटनों के बल धरती पर बैठ गया ! उसका मस्तक युवक भिक्षुराज के चरणों में भुक रहा था। महाकुमार ने कमंडलु से पवित्र जल निकालकर राजा के स्वर्ण-खचित राज- मुकुट पर छिड़क दिया, और कहा- 'कहो-~- बुद्धं शरणं गच्छामि। सघं शरणं गच्छामि। सत्यं शरणं गच्छामि । राजा ने अनुकरण किया । तब भिक्षुराज़ ने अपने शुभ हस्त राजा के मस्तक पर रखकर कहा-राजन् उठो। तुम्हारा कल्याण हो गया। तुम प्रियदर्शी सम्राट् के प्यारे सद्धर्मी और तथागत के अनुगामी हुए। इसके बाद राजा की ओर देखे बिना ही भिझु-श्रेष्ठ अपने निवास को लौट गए। उनके लिए राजमहल में एक विशाल भवन निर्माण कराया गया। और उसमें श्वेत चंदोवा ताना गया था, जो पुष्पों से सजाया गया था। महाकुमार ने वहां