पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/६६

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बौद्ध कहानिया बैठ कर अपने साथियों के साथ भोजन किया और तीन बार राजपरिवार को उप- देश दिया। उसी समय तिप्य के लघु भ्राता की पत्नी अनुला ने अपनी पांच सौ सखियों के साथ सद्धर्म ग्रहण किया। संध्या का समय हुआ, और भिक्षु-मण्डली पर्वत की ओर जाने को उद्यत हुई। महाराज तिष्य ने आकर विनीत भाव से कहा-पर्वत बहुत दूर है, और अति विलम्ब हो गया है, सूर्य छिप रहा है, अतः कृपा कर नन्दन उपवन में ही विश्राम करें। महाकुमार ने उत्तर दिया-राजन्, नगर में और उसके निकट वास करना भिक्षु का धर्म नहीं। 'तव प्रभु महामेघ-उपवन में विश्राम करें; वह राजधानी से न बहुत दूर है, न निकट ही।' महाकुमार सहमत हुए, और महामेघ-उपवन में उनका आसन जमा । दूसरे दिन तिष्य पुप्प-भेंट लेकर सेवा में उपस्थित हुा । महाकुमार ने स्थान के प्रति संतोष प्रकट किया। तिष्य ने प्रार्थना की कि वह उपवन भिक्षु- सघ की भेंट समझा जाय, और वहां विहार की स्थापना की जाय । भिक्षुराज ने महाराज तिप्य की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। महामेघ- अनुष्ठान के तेरहवें दिन, आषाढ़-शुक्ल त्रयोदशी को महाकुमार महेन्द्र, राजा का फिर प्रातिथ्य ग्रहण करके, अनुराधापुर के पूर्वी द्वार से मिस्सक-पर्वत को लौट चले । महाराज ने यह सुना तो वह राजकुमारी अनुला और सिंहालियो को साथ लेकर, रथ पर बैठकर दौडा। महेन्द्र और भिक्षु तालाब में स्नान करके पर्वत पर चढ़ने को उद्यत खडे थे। राजवर्ग को देखकर महाकुमार ने कहा-~~-राजन्, इस असह्य ग्रीष्म मे तुमने क्यों कण्ट किया? 'स्वामिन्, आपका वियोग हमें सह्य नहीं।' 'अधीर होने का काम नही। हम लोग वर्षा-ऋतु में वर्ष-अनुष्ठान के लिए यहा पर्वत पर आए हैं, और वर्षा-ऋतु यही पर व्यतीत करेंगे।' महाराज तिष्य ने तत्काल कर्मचारियो को लगाकर ६८ गुफाएं वहां निर्माण करा दीं; और भिक्षुगण वहां चतुर्मास व्यतीत करने को ठहर गए । एक दिन , तेष्य ने कहा-