पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/६७

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भिक्षुराज 'स्वामिन्, यह बड़े खेद का विषय है कि लंका में भगवान बुद्ध का ऐमा कोई स्मारक नहीं जहा उसकी भेट-पूजा चढ़ाकर विधिवत् अर्चना की जाय । यदि प्रभु स्मारक के योग्य कोई वस्तु प्राप्त कर सकें तो उसकी प्रतिष्ठा करके उसपर स्तूप बनवा दिया जाय ।' महाकुमार महेन्द्र ने विचार कर सुमन भिक्षु को लंका-नरेश का यह सदेश लेकर सम्राट् प्रियदर्शी अशोक की सेवा मे भारतवर्ष भेज दिया। उसने सम्राट् से महाकुमार और महाकुमारी के पवित्र जीवन का उल्लेख करके कहा-~-चक्रवर्ती की जय हो ! महाकुमार और लंका-नरेश की इच्छा है कि लंका में तथागत के शरीर का कुछ अंश प्रतिष्ठित किया जाय, और उसकी पूजा होती रहे। अशोक ने महायुद्ध के गले की एक अस्थि का टुकड़ा उसे देकर विदा किया। महाकुमार उस अस्थि-खंड को लेकर फिर महामेघ-उपवन में आए। वहा राजा अपने राजकीय हाथी पर छत्र लगाए स्वागत के लिए उपस्थित था। उसने अस्थि-खंड को सिर पर धारण किया, और बड़ी धूम-धाम से उसकी स्थापना की । उस अवसर पर लीस सहस्र सिंहालियों ने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया। द्वीप भर में बौद्ध-धर्म का साम्राज्य था। सम्राट ने अपने पवित्र पुत्र और पुत्री को तीन सौ पिटारे भरकर धर्म-ग्रंथ उपहार भेजे थे। उन्हें वहां के निवासियो को उसने अध्ययन कराया। एक बच्चा भी अव बौद्धो की विभूति से वंचित न था। भिक्षुराज महाकुमार महेंद्र कठिन परिश्रम और तपश्चर्या करने से बहुत दुर्बल हो गए थे। वृद्धावस्था ने उनके शरीर को जीर्ण कर दिया था। महा- राजकुमारी ने द्वीप की स्त्रियों को पवित्र धर्म में रंग दिया था। दोनों पवित्र आत्माएं अपने जीवनों को धैर्य से गला चुके थे। उन्हें वहां रहते युग बीत गया था । एक दिन उन्होंने कुमारी से कहा- 'प्रार्या संघमित्रा ! मेरा शरीर अब बहुत जर्जर हो गया है। अब इस शरीर का अन्त होगा। यह तो शरीर का धर्म है। तुम प्राण रहते अपना कर्तव्य पूर्ण किए जाना ।' उसके मुख पर संतोष के हास्य की रेखा थी।