पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/८०

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दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सजनी सलीमा ने कष्ट से कहा- हुजूर ! मेरा कुमूर बहुत मामूली था । बादशाह ने कड़े स्वर में कहा-बदनसीब ! शाही जनानखाते में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली कुसूर समझती है ? कानों पर यकीन कभी न करता, मगर अांखों-देखी को भी झूठ मान लू ? तड़पकर सलीमा ने कहा-क्या ? बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा-सच कहो, इस वक्त तुम खुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था ?" सलीमा ने अकचकाकर पूछा-कौन जवान ? बादशाह ने गुस्से से कहा-जिसे तुमने साकी बनाकर पास रक्खा था । सलीमा ने घबराकर कहा-हैं ! क्या वह मर्द है ? बादशाह--तो क्या तुम सचमुच यह बात नही जानती ? सलीमा के मुंह से निकला था खुदा ! फिर उसके नेत्रों से आंसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली-खाविद ! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं ; इस कुसूर' को तो यही सजा मुनासिव थी। मेरी बदगुमानी माफ फर्माई जाय । मैं अल्लाह के नाम पर पडी कहती हूं, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है । बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा-तो प्यारी सलीमा ! तुम वेकुसूर ही चली ? बादशाह रोने लगे। सलीमा ने उनका हाथ पकड़कर अपनी छाती पर रखकर कहा-मालिक मेरे ! जिसकी उम्माद न थी, मरते वक्त वह मजा मिल गया। कहा-सुना माफ हो, और एक अर्ज़ लौंडी की मंजूर हो । वादशाह ने कहा- जल्दी कहो सलीमा ! सलीमा ने साहस' से कहा-उस जवान को माफ कर देना । इसके बाद सलीमा की आंखों से आंसू वह चले, और थोड़ी ही देर में वह ठडी हो गई ! बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा, और फिर वालक की तरह रोने लगे। गज़ब के अंधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पड़ा था। एकाएक घोर