पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/८१

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भुगल कहानियां चौत्कार करके किवाड़ खुले । प्रकाश के साथ ही एक गम्भीर शब्द तहखाने में भर गया-बदनसीब नौजवान ! क्या होश-हवास में है ? युवक ने तीव्र स्वर में पूछा-कौन ? जवाब मिलाबादशाह । युवक ने कुछ भी अदव किए बिना कहा-यह जगह बादशाहों के लायक नहीं है। क्यों तशरीफ लाये है ? 'तुम्हारी कैफियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने पाया हूं।' कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा-~-सिर्फ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफियत देता हूं, सुनिए : सलीमा जब बच्ची थी, का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा पर्दे में रहने लगी, और फिर वह शहंशाह की बेगम हुई। मगर मैं उसे भूल न सका। पांच साल लक पागल की तरह भटकता रहा, अंत में भेष बदलकर बांदी की नौकरी कर ली। सिर्फ उसे देखते रहने और खिदमत करके दिन गुजारने का इरादा था । उस दिन उज्ज्वल चांदनी, सुगन्धित पुष्प-राशि, शराब की उत्तेजना और एकांत ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने आंचल से उसके मुख का पसीना पोछा, और मुंह चूम लिया । मैं इतना ही खतावार हूं। सलीमा इसकी बाबत कुछ नहीं उसके बाप जानती। बादशाह कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। इसके बाद वे बिना ही दरवाजा बंद किए धीरे-धीरे चले गए। सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए । बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैं। सामने, नदी के उस पार, पेड़ों के झुरमुट में सलीमा की सफेद कब बनी है। जिस खिड़की के पास सलीमा बैठी उस दिन रात को वाद- शाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिड़की में, उसी चौकी पर बैठे हुए बाद- दशाह उसी तरह सलीमा की कन दिन-रात देखा करते हैं। किसीको पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्मभेदिनी गीत-ध्वनि उठ खड़ी होती है। बादशाह साफ-साफ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है- 'दुखवा में कासे कहूं मोरी सजनी ?'