पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/८२

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लाला रुख स कहानी में एक कोमल भावुक प्रेम का मोहक रेखा-चित्र है। मुगल- कालीन ऐश्वर्य की एक सजीव झांका भी इस कहानी में दिखाई देती है । कथोप- कथन की समर्थ पद्धति और भाषा की ललक इस कहानी में देखे ही बनती है। कहानी पढ़ने के समय पाठक-पाठिकाओं को एक ऐसे भाव-समुद्र में तुरन्त डूब आना पड़ता है जो अतिशय सुखद है। प्यार की एक उदग्र मूर्ति इस कहानी में लाला रुख के रूप में व्यक्त हुई है। उस दिन दिल्ली के बाजार में बड़ी धूम थी। चारों तरफ चहल-पहल ही नजर आती थी। घर-घर में जलसे हो रहे थे, और जशन मनाया जा रहा था, बाजार सजाए गए थे। खासकर चांदनी चौक की सजावट आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करती थी। असल बात यह थी कि बादशाह आलमगीर की दुलारी छोटी शाहजादी लाला रुख का व्याह बुखारे के शाहजादे से होना तय पा गया था। इसके साथ ही यह बात भी तमाम दरबारियों और बुखारा के एलचियों से सलाह-मशविरा करके तय पा गई थी, खास तौर से दुखारा के शाहजादे ने इस बात पर पूरा जोर दिया था कि उसे कश्मीर के दौलतखाने में शाहजादी का इस्तकबाल करने की इजाजत दी जाए, और बादशाह ने इस बात को मंजूर कर लिया था। उस दिन लाला रुख की सवारी दिल्ली के बाजारों में होकर कश्मीर जा रही थी, और दिल्ली शहर की यह सब तैयारियां इसी सिलसिले में थीं। जिन सड़कों से सवारी जाने वाली थी, उनपर गुलाब और केवड़े के अर्क का छिड़काव किया गया था। दुकानों की सब कतारें फूलों से सजाई गई थीं। जगह-जगह पर मौलसरी और वेले के गजरों से बन्दनबार बनाए गए थे। बजाजों ने कबमस्बान और जरबफ्त के थानों को लटकाकर खूबसूरल दरवाजे तैयार किए थे, जौहरी और सुनारों ने सोने चान्दी के जेवरों और जवाहरात के कीमती जिंसों से अपनी दुकान के बाहरी हिस्से को सजाया था। इंतिजाम के

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