पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/९४

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बाचिन ? 'जी हां, मेरे प्राका! मेरे दादाजान की मिहरबानी से, लाल किले के भीतर जब पाप मेरी डोली में लगाए जाने के लिए चाबुको से लहू-लुहान किए गए थे, तब यह बदनसीब गुलबानू आपको तसल्ली देने तथा और भी कुछ देने श्रापकी खिदमत में पाई थी। उम्मीद थी, मर्द औरत की अमानत-खासकर वह अमा- नत, जो दुनिया की चीज नहीं, जिसके दाम जान और कुर्बानी हैं--संभालकर रक्खेंगे। पर पीछे यह जानने का कोई जरिया न रहा कि हुजूर ने वह अमानत किस हिफाजत से कहां छिपाकर रक्ली ? गदर में वह रही या मेरे बाबाजान के तख्त के साथ वह भी गई ? इलाहीवख्श का मुंह काला पड़ गया। बदहवासी की हालत में उनके मुंह से निकल पड़ा--श्राप शाहजादी गुलवानु" गुलवानू ने शान्त स्वर में कहा-वही हूं जनाब ! मगर डरिएगा नही | अगर गदर में मेरी अमानत लुट भी गई होगी तो वह मांगने जनाब की खिद- मत में नहीं पाई हूं। अब गुलवानू शाहजादी नहीं, हुजुर की कनीज़ है—महज़ बाचिन है ! मेरे अाका, क्या बांदी के हाथ का खाना पसन्द आया ? क्या बद- नसीब गुलबानू की नौकरी बहाल रह सकेगी ? इलाहीबख्श बेहोश होने लगे। वे सिर पकड़कर वहीं बैठ गए। मुलवानू ने पंखा लेकर झलते हुए कहा-जनाव के दुश्मनों की तबीयत नासाज तो नही, क्या किसीको बुलाऊं ? इलाहीबख्श जमीन पर गिरकर शाहजादी का पल्ला चूमकर बोले-शाह- जादी, माफ करना ! मैं नमकहराम हूं। 'मैं जानती हूं। मगन हुजूर, यह तो बहुत छोटा कसूर है । क्या हुजूर यह नहीं जानते कि औरतें दिल और मुहब्बत को सल्तनत से बहुत बड़ी चीज़ समझती हैं ? क्या आप यकीन करेंगे कि १२ साल तक मैं आपकी उस जमीन मे घायल तड़पती, मूरन को प्रांखों में बसाकर जीती रही। जो कुछ बन सका बाबाजान से कहकर किया। मैं जानती थी कि मिल न सकूगी, मगर अापको दुनिया में एक स्तबा देने की हरम थी...वह पूरी हुई। इलाहीबस्दा पागल की तरह मुंह फाड़कर सुन रहे थे । शाहजादी ने कहा जय बाबाजान ने आपके दगा और अंग्रेजों से आपके मिल जाने का हाल कहा तो दिल टूट गया। मगर उस दिन से अब काम ही ।