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पृष्ठ:यंग इण्डिया.djvu/११

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वक्तव्य

कभी कभोकी बेकारी भी बड़ा काम कर जाती है। जिस समय वणिक प्रेससे मैंने अपना सम्बन्ध तोड़ा मेरे पास बहुत सा फालतू समय हो गया था। मेरे एक अतिशय घनिष्ठ बन्धने, जो मालमें ही गया कांग्रेस से लौटे थे, इस फालतू समय को काटने के लिये महात्मा गांधी के 'यङ्ग इण्डिया' के लेखों का एक संग्रह उपहार में दिया। पुस्तक हाथ में आते ही मैंने देखा कि केवल अखबारी लेख ही न होकर इसमें साहित्य की स्थायी सम्पत्ति भी है और यदि हिन्दी में इसका अनुवाद निकाला जाय तो बड़ा ही उपयोगी होगा, इसके अनुवाद तथा प्रकाशन के लिये मेरे मुहमें पानी भर आया। पर आप जानते ही हैं कि सरस्वतो और लक्ष्मी में पुराना बेर है, या यों कहिये कि विधाताको कोई इतनी बात सुझानेवाला न रहा कि हजरत! बिचारे पढ़ने लिखने. घालों को भी दो पैसा दे देते जिससे वे भी अपने दिलकी हवस मिटा लिया करते। पर मैं इतनेसे हताश होनेवाला नहीं था। बातों ही बातोंमें मैंने अपने हृदयकी इच्छा अपने हितैषी मित्र बाबू राधाकृष्णजी नेवटियासे प्रगट की। उन्होंने प्रोत्साहन देते हुए मेरी अभिलाषा पूरी करनेका वचन दिया। फिर क्या था मैं दूने उत्साह से इस काम को करने लगा। उन्हीं का परामर्श हुआ कि यदि महात्माजी के गुजराती नवजीवन के भी कुछ लेख इस संग्रह में जोड़ दिये जायें तो यह पुस्तक और भी उपयोगी हो जाय। एक तो समय कम दूसरे गुजराती भाषा में मेरी गति