"भीतर, अध्यक्ष महाशय अपने सहकारियों सहित मेज़ लगाकर बैठ हुए थे। उनके सामने हाल की ही छपी हुई निवाचकों की सूची तथा मत देने के लिये कागज रखे हुए थे जो कि प्रत्येक मतदाता को उस कोठरी में प्रवेश करने के पूर्व दे दिये जाते थे जिसमें मन-संग्रह के निमित्त सन्दूक रखी हुई थी। किन्तु सबेरे आठ बजे से लेकर बारह बजे के उपरान्त तक दिन-भर मे वहां एक भी निर्वाचक के दर्शन न हुए।”
सरकारी पत्रो से विदित होता है कि प्रान्तीय व्यवस्थापक सभाओं के निर्वाचन मे फी सैकड़े ७१ से ८० मनुष्य तक अपना मत देने नही गये। बड़ी व्यवस्थापक सभा के लिये लगभग ८० फी सेकड़े निर्वाचको ने मत नहीं दिया और राज्य-परिषद्की संकुचित रचना एवं विचित्रता के होते हुए भी ६० फी सैकडे निर्वाचक चुनाव के स्थान पर उपस्थित नही हुए। नरमदल वालों तथा गोरे समाचारपत्रों ने चतुरतापूर्ण बातें प्रकाशित कर सरकार की पूर्ण पराजय एवं 'चुने गये' उम्मेदवारों का अप्रतिनिधित्व छिपाने की चेष्टा की, किन्तु स्वतन्त्र आलोचकों ने, जो असहयोग सिद्धान्त के पूरे विरोधी थे और जो व्यवस्थापक सभाओं के वहिष्कार पर दुःख प्रगट करते थे, विवश होकर निर्वाचनों की निःसारता स्वीकार की है। पार्लिमेण्ट के सदस्य कर्नल वेजवुड कहते हैं-
'निर्वाचन किये गथे, किन्तु ऐसे निर्वाचनों का किया जाना शायद ही उपयोगी हो। असंख्य मनुष्य जिन्होंने मत दिया होता