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रवीन्द्रनाथ ठाकुरका सन्देह


ध्यने अपनी आत्मा को क्रूरता के साथ कुचला है, और सत्य तथा प्रतिष्ठा की हत्या की है। सभ्यता की नींव का यह आकस्मिक उजाड़, अनेक तरह के आन्दोलनों को जन्म देगा जिसमें मानव जातिको इससे भी अधिक यातनाओंको सहने के लिये तैयार रहना चाहिये । समता की स्थापना सुदूर का प्रश्न है और इसका अनुभव, सन्धिसभा में बदले की जो चिनगारियां छिटकायी जा रही है, उनसे पूरी तरह से हो रहा है ।

ये विजयी शक्तियां अपनी आवश्यकता के अनुसार संसार के टुकड़े टुकड़े कर रही हैं। इसमें हमारा कोई हाथ नहीं है। हम लोगों को यह जान लेना परम आवश्यक है कि जो लोग दीन दुःखियों पर अत्याचार करते हैं केवल उन्हीं को चारित्रिक पतन नहीं होता बल्कि जिसपर किया जाता है उसका भी चारित्रिक पतन होता है। यह जानकर कि आचरण से हमें दण्ड नहीं भुगतना पड़ेगा, हम उस भीरुतापूर्ण काम को करने के लिये प्रवृत्त हो जाते है तो हमारी हीनता है। पर उस मनुष्य के हृदय में- जिसके ऊपर अत्याचार किये जाते हैं-क्रोध और क्षोभ का भाव उदय होना और भी खराब है. जब वह जानता है कि हम इसका प्रतीकार नहीं कर सकते। जिस समय पशुबल, अपने असीम पराक्रम के दम्भ में आकर किसी की आत्मा को कुचल डालना चाहता है उस समय उस मनुष्यको साहस तथा दृढ़ता के साथ यह दिखला देना चाहिये कि उसकी आत्मा प्रबल है। अपने