प्रयास व्यर्थ था। उन आन्दोलनों पर कोई ध्यान नहीं दिय गया।
इस तरह अवस्था भेद का अन्तर प्रत्यक्ष था। एक तरफ तो ये बिचारे नेतागण ब्रिटिश जनता, ब्रिटिश न्याय, ब्रिटिश पार्लिमेण्ट के अनन्य भक्त हो रहे थे और उधर इनकी (कांग्रेस द्वारा की गई) सिफारिशों पर किसी के कान में जुआं भी नहीं रंगते ब्रिटिश अधिकारी वर्ग इन्हें रद्दी कागज की टोकरो में फेंक देते थे और यदि कभी इन पर विचार भी किया और कुछ मुभीता कर दिया तो वह इतना कम रहता था कि उस समय तक उसकी उपयोगिता एक-दम से घट जाती थी। काप्रेस प्रति वर्ष अपने प्रस्तावों को दोहराती जाती थी पर इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था। शासन की व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रही। सैनिक व्यय दिन पर बढता था और प्रजा की आर्थिक व्यवस्खा के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं था। १८८० और १९०० के बीच अर्थात् केवल २० वर्ष में चार बार भीषण अकालने अपना लम्बा मुंह फेला कर इस गरीब देश के लाखों प्राणियों को निगल लिया। काँस के मत से इन अकालों का एक मात्र कारण प्रजा का रक्त चूस कर रुपया विदेशों को भेजना तथा शासन व्यवलाको अतिव्ययी बनाना था। कांग्रेस के वृद्ध जनाने बड़े लाटके पास डेपुटेशन भेजा और विलायत मी