अपना यह कर्तव्य समझता हूं कि मैं भी मुसलमानोंकी यातनाओं और कष्टोंमें उनका साथ दूं। यदि मैं मुसलमानोंको अपना
भाई समझता हूं तो यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपनी शक्ति भर
संकटके समय उनकी सहायता करूं यदि उनकी बातें न्यायपूर्ण
और उचित प्रतीत होती हैं।
(४) चौथे प्रश्नमें पूछा गया है कि हिन्दुओंको मुसलमानोंका साथ कहां तक देना चाहिये। यह बात हृदयके भाव और मन-पर निर्भर करता है । मैं अपने मुसलमान भाइयोंके साथ उनकी न्यायपूर्ण मांगोंके लिये अन्त तक सङ्कट भोगनेको तैयार हूं और मैं तबतक उनका साथ देता रहूंगा जबतक मेरी रायमें जिन उपायोंका वे प्रयोग करते हैं वे उनकी मांगोंके उपयुक्त हैं। में मुसलमानोंके आन्तरिक भावोंपर किसी तरहका नियन्त्रण नहीं रख सकता। मैं तो उनकी इस बात को स्वीकार करने के लिये तैयार हूं कि खिलाफत का प्रश्न धर्मका प्रश्न है और उस हिसाब से वह प्रत्येक मुसलमान के लिये जीवन मरणका प्रश्न है। इसलिये वह हर तरहसे उस उद्देश्यको सिद्धिकी चेष्टा करेगा ।
(५) असहयोग हिंसासे सदा दूर रहता है इसलिये उसे
विद्रोह या क्रान्ति नहीं कह सकते। यों तो सरकार के विरुद्ध
किये गये सभी प्रकार के आन्दोलनों का व्यापक नाम विद्रोह या
क्रान्ति हो सकती है। इस मानेमें उचित बातके लिये जो क्रान्ति
की जाय उसे कर्तव्य पालन कहते हैं। उस अवस्था में विरोध की