पृष्ठ:यंग इण्डिया.djvu/५२

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गई थी। मित्र बलों की स्थिति डावोडोल हो गई थी उनके पैर उखड़ गये थे। जर्मन सैनिक युद्ध क्षेत्र में अतुल पराक्रम दिखला रहे थे और बड़े बेग से आगे बढ़ते जा रहे थे। इस समय साम्राज्य के लिये अधिकाधिक सहायता की आवश्यकता थी। ब्रिटिश प्रधान मन्त्री मिस्टर लायड जार्जने अप्रेल २, १६१८ को भारतीयों के नाम निम्नलिखित सम्वाद भेजा:-"आपको विदित हो कि जर्मनी का उच्छल शासन केवल यूरोप में ही नहीं बल्कि एशिया में भी आतङ्क और जुल्म फैलाने का इरादा कर रहा था। इसलिये प्रत्येक स्वतन्त्रता प्रेमो तथा कानुन को मर्याक्ष रखने. बाले का यह धर्म होना चाहिये कि इस धर्मयुद्ध में सम्मिलित होकर पूर्वमें उपस्थित होने वाले भयको अभी से दूर भगावे और संसार की रक्षा करे। हमें पूण आशा है कि भारत इस युद्ध में जो कोर्ति कमा रहा है उसे और भी प्रज्वलित करेगा और हर तरहकी सहायता प्रदान करके एशिया को रक्षा करेगा जिससे शशुका मनोवाञ्छित सिद्ध न हो सके। इसके उत्तर में प्रजा की ओर से बड़े लाट महोदय ने निम्नलिखित सम्वाद भेजा था:-"मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि भारतकी जनता हर तरहले तैयार है। अन्तिम सांस रहते भी भारत पीछे नहीं हटने का। शत्रु के पापाचार और उच्छलता से मातृभूमि की रक्षा का उसने पका संकल्प कर लिया है और जिस न्याय तथा सवाई के सिद्धान्त. को लेकर विटन इस युद्ध में परिणत हुमा है भारत उसका अन्त समय तक साथ देगा। उसके बाद अप्रेल २७, १९१८को दिल्ली में