हमारा प्रस्ताव चार भागोंमे बटा है। पहले भागमें विराय और प्रार्थनाकी बात है। इङ्गलैण्डमे खिलाफतमें प्रश्न के खिलाफ जा निराधार और झूठा आन्दोलन उठाया गया है उसका यह सभा विरोध करती है और प्रधान मन्त्री तथा ब्रिटिश रजनीति ज्ञोंसे प्रार्थना करतो है कि वे इस आन्दोलनमें भाग न लें और मुसलमानोंको न्यायपूर्ण मांगोंको पूरा करके उनके धार्मिक भावों की रक्षा करें और भ्रातृभावको स्थापना करें। दूसरे भागका अभिप्राय यह है कि यदि सरकारके साथ पूरे तरहसे सम्बन्ध त्याग दिया जाय तो खिलाफरके प्रश्नका एकाएक विपरीत फल होनेकी सम्भावना है और इससे भारतवासियोंकी राजभक्तिपर भीषण बोझ पड़ जायगा। यदि अभाग्यवश ऐसी अवस्था उपस्थित हो गयी तो जोश और उत्तेजनाका भी सम्भावना है। तोमर भागमें लागोंको कडी भाषा तथा हिंसासे रोका गया है क्योंकि इस सभाके मतसे उस तरफ माधारण प्रवृत्ति भी खिलाफतके पवित्र नामपर कलङ्कका टोका लगा देगी और असाधारण क्षति पहुचावेगी। यहा तक तो प्रस्तावमें सबके लिये प्रेरणा है चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई हो।
यह सभा इस संग्राममें पूरी तौरसे हिंसा रहित होने की मन्त्रणा देती है और दोनों आन्दोलनोंको एक सूत्रमें बांधकर चलानेकी परामर्श देती है। पर कुरान धर्मके अनुसार मुसल-मानोंपर खास जिम्मेदारियां हैं जिनका पालन हिन्दु नहीं भी कर सकते। अगर शान्तिमय असहयोगसे उनका काम न चला,