पृष्ठ:यंग इण्डिया.djvu/५४१

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खिलाफतपर भाषण

का साथ देने के अतिरिक्त हमें कोई अन्य उत्तम तरोका नहीं दिखाई देता जिसके द्वारा हमलागांकी मैत्रो पक्को हा जाय। पर इस प्रकारक पवित्र कार्यमे वाचा या कर्मणा हिंसाके भाव हृदयमें नहीं आने चाहिये। 'कएटकेनैव कण्टकम् अर्थात् विषसेहा विषको मरने-की नीति हमें छोड़ देनी चाहिये। हमे घृणाको भी प्रेमस जीतना चाहिये। मैं मानता हूँ कि अन्यायको प्रमकी दृष्टिले देखना कठिन है पर सच्चा विजय वही है जो अनेक तरहकी कठिनाइयों-को पूर्ण धैर्य तथा साहसके साथ पार करनेके बाद ही प्राप्त होती है। और न्याययुक्त उद्देश्यमें तो साहस और धैर्य्यकी नितान्त आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त हिंसासे हमारे काममें हानि भी पहुच सकती है। इससे उत्तेजना भले ही फैल जाय पर इस तरहके जाशसे हम अपने ध्येय तक नहीं पहुंच सकते। इसलिये इस प्रस्तावका अहिसावाला अंश आत्मसयमपर पूरा जोर देता है और प्रत्येक बक्ताको इस बातका आदेश देता है कि वह अपने भाषण में बनावटी बातें लाकर जाश बढ़ानेका यत्न न करें क्योंकि इससे खून खराबी हो सकती है। इसका परिणाम यह होगा कि सरकारको दमन जारी करनेका अवसर मिल जायगा और जनताको नीचा देखना पड़ेगा। पर मुझे मालूम है कि मुसलमान भाई मर्यादाके भीतर ही रहना चाहते हैं। मुसलमान लोग किसी बातको छिपाना या गुप्त रखना नहीं चाहते । इसलिये कुछ लोगोंने यह शत लगा देनेपर जोर दिया है कि यदि असहयोग असफल हुआ तो वे अन्य उपायोंसे भी काम

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