१९२१ को, अहमदाबाद के लिये रवाना होने के ठीक पहले, गिरफ्तार किये गये। उनका मुकदमा भिन्न भिन्न कारण बता कर बारम्बार १२ फरवरी १९२२ तक टाला जाता रहा। अभियुक्त ने पैरवी करना या वक्तव्य उपस्थित करना अस्वीकार किया,अतः उन कागजों पर उनके हस्ताक्षरों को प्रमाणित करना 'आवश्यक हुआ जो समाचार पत्रों में छपने के लिये भेजी गयी मूल हस्तलिपियां बतायी गयीं।
अन्य गवाही के अतिरिक्त सरकारी विशेषज्ञ ने उक्त हस्ताक्षरों की तुलना उन हस्ताक्षरों के साथ कर जिन्हें दास महोदय ने अपना स्वीकार किया था इस बातकी कसम खायी कि ये हस्ताक्षर भी उन्होंके हैं। देश बन्धु दोषी समझे गये और दो मासतक हवालात में रखे जाकर उन्हें छः मास के कारागस का दण्ड दिया गया। दोषीस जानेके बाद उन्होंने देशवासियों के नाम सन्देश प्रकाशित करते हुए यह स्पष्ट कह दिया कि जो हस्ताक्षर मेरे कहे गये हैं वे वास्तव में उन व्यक्तियों द्वारा किये गये हैं जिन्हें मैंने ऐसा करने की आशा दी थी। इसके कुछ समय के बाद षङ्गाल को कार्यकारिणी सभा के एक भारतीय सदस्य, मद्रास के भूत पूर्व प्रधान न्यायपति ने यह सूचित किया कि सरकार दास महोदय के मुकदमें पर विचार कर रही है। सरकार ने इतने धैर्य के साथ इसका विचार किया कि देशबन्धु