तीसरा परिच्छेद
मैं हमीदा के आगे फिर परास्त हुआ और निरुपाय होकर हमीदा के उस तोहफे को मैंने स्वीकार किया। मेरी स्वीकृति को सुनतेही हमीदा मारे प्रसन्नता के उछल पड़ी और उसने अपना दहना हाथ मेरे आगे बढ़ा दिया। मैंने बड़े उमंग से उसके हाथ को अपने हाथ में लिया और उसे चूम कर उसकी कृतज्ञता का बदला दिया।
आह! उस करस्पर्श में उस समय जिस अनिर्वचनीय सुख का आस्वाद मैंने पाया था, उसे जिह्वा से मैं किसी भांति भी व्यक्त नहीं कर सकता।
निदान, हमीदा ने भी मेरे हाथ को चूमा और तब फिर वही हमीदा, जो कि पहिले बड़ीही तेजस्विनी, गर्विता, परुषभाषिणी और कुपिता अफरीदी नारी थी, हास्यमुखी, कौतुकमयी, कोमलप्राणा और सरला बालिकाली प्रतीत होने लगी। इतनेही, में, खोह में पर्णशेया की रचना कर और उसके द्वार पर एक छेद में जलती लखड़ी के टुकड़े को खोल कर अबदुल बाहर आया और उसने मुझे भीतर जाकर सो रहने के लिये कहा। उस समय मैं सचमुच बहुत ही थक गया था और भारी शीत के कारण मेरा प्राण ओठों पर नाच रहा था, इसलिये हमीदा को बिदाकर के मैं खोह के भीतर गया और पर्णशैया पर जाकर पड़ गया। यह बात ठीक है कि कभी कभी बहुत परिश्रम करने के बाद जल्दी नींद नहीं आती। सो, मैं भी बहुत देर तक पड़ा पड़ा जागा किया और उस समय न जाने कितनी और कहां कहां की अनाप सनाप बातें मेरे मन में उठने लगीं; किन्तु सभी चिन्ताओं के भीतर मुझे हमीदा ही हमीदा दिखलाई देने लगी। उस समय मैने अपने मन में सोचा कि यदि हमीदा केवल कोमल-स्वाभावा किम्वा केवल परुष-स्वभावा होती तो उसके समान कोमलतामयी किम्वा पाषाणी नारी दूसरी न दिखलाई देती, किन्तु वह तो कठिनता-कोमलता, तेजस्विता-मधुरताः साहस और विनय आदि परस्पर विभिन्त प्रकृति के गणसमूहों की खान है और उन सभों पर उसका देवतादुर्लभ सौन्दर्य तो बहुत ही अनूठा है। ऐसी अवस्था में उसके लिये किस उपमा की अवतारणाकी