पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/२०

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(१८)
[तीसरा
याक़ूतीतख़्ती


जाय कि जिसने मुझ जैसे नीरस व्यक्ति के कठोर हृदय पर भी अपने अद्भुत प्रभाव को डाल कर मोह लिया! अस्तु, मैंने मनही मन यही सिद्धान्त किया कि यद्यपि हमीदा अफ़रीदी कन्या है, तथापि वह सिंहनीनारी किसीवीरसिंह के ही उपयुक्त और योग्य है। क्योंकि यद्यपि बहुमुल्य माणिक्य भी लोगों की अज्ञात अवस्था में मिट्टी के नीचे दबा रहता है, तो क्या इससे उसकी ज्योति और मूल्य में कभी न्यूनता होती है! और उस अवस्था में, जब कि वह किसी योग्य जौहरी के सामने आपड़ता है!

निदान, यही ऊटपटांग सोचते विचारते मैं कब ऊंघ गया, इसकी मुझे कुछ भी सुधि न रही, क्योंकि मैं बहुत रात तक जागता रहा था, सो एकही नीद में सबेरा होगया और मैने आंखें खोल कर देखा तो जान पड़ा कि दिन अधिक चढ़ आया है! यह जानकर मैं उठने लगा तो क्या देखता हूं कि मेरे हाथ पैर डोरी से जकड़ कर बांध दिए गए हैं और तल्वार, बंदूक तथा लाठी पास से गायब हैं! यह देख कर मैं बड़ा चकित हुभा और सोचने लगा कि यह कैसा उत्पात है! किन्तु उस समय वहां पर कोई न था, जिससे मैं उस अत्याचार के विषय में कुछ पूछता। लाचार, जैसे का तैसा मैं उसी गुफा में पर्णशैया पर पड़ा रहा।

थोड़ीही देर में उस गुफा के द्वार पर कुछ मनुष्यों के बोल सुनाई पड़े और दो मनुष्य भीतर आकर मुझे घसीटते हुए गुफा के बाहर लेगए। बाहर जाकर मैने पांच सात मनुष्यों को देखा, जिनमें वह कृतघ्न और पाजी अबदुल् भी था। यह सब कौतुक देखकर असल बात क्या थी, इसके समझने में मुझे देर न लगी और मैने मनही मन इस बात का निश्चय कर लिया कि यह सारा पाजीपन कमीने अबदुल् का है।

मारे क्रोध के मेरा सारा शरीर थर थर कांपने लगा और मैंने अपनी आंखों से आग बरसाकर उस दुष्ट अदुल् से कहा,-"रे विश्वासघातक, चांडाल, रेरे बेईमान, ऐहसान-फरामोश, कमीने अबदुल्! कल जो मैंने उन गोर्खे सिपाहियों से तेरी जान और तेरे मालिक की लड़की हमीदा की आबरू बचाई और अपनी जान पर खेल और इतना कष्ट सह कर जो तुम लोगों की रक्षा के लिये मैं यहां तक आया, उसका बदला यही है! इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि कल तू उन गोर्खे सिपाहियों के हाथ से मारा गया होता!"